Unnao Rape Case: उन्नाव पीड़िता की लड़ाई में CBI कहां हुई फेल? हाईकोर्ट के आदेश से पता चली जांच में चूक की सच्चाई

उन्नाव रेप केस में कुलदीप सिंह सेंगर को POCSO की धाराओं से राहत मिलने के बाद कोर्ट दस्तावेज़ों ने CBI की भूमिका पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं. दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले से साफ होता है कि 2019 में पीड़िता के परिवार की मांगों को CBI का समर्थन नहीं मिला और जांच में निष्पक्षता पर भी ट्रायल कोर्ट ने टिप्पणी की थी. पीड़िता की उम्र से जुड़े अहम सबूत दबाने और गलत धाराओं में मुकदमा चलाने के आरोपों ने यह मामला केवल एक अपराध नहीं, बल्कि न्याय प्रणाली की बड़ी विफलता बना दिया है.;

( Image Source:  ANI )
Edited By :  नवनीत कुमार
Updated On : 25 Dec 2025 11:02 AM IST

उन्नाव रेप केस एक बार फिर सुर्खियों में है, लेकिन इस बार वजह सिर्फ सजा में राहत नहीं, बल्कि उस पूरी जांच प्रक्रिया पर उठे गंभीर सवाल हैं, जिसे देश की सबसे भरोसेमंद एजेंसी माना जाता है. कुलदीप सिंह सेंगर को मिली कानूनी राहत के बाद सामने आए कोर्ट दस्तावेज़ यह संकेत देते हैं कि पीड़िता को सिर्फ सिस्टम से नहीं, बल्कि जांच एजेंसी से भी निराशा हाथ लगी.

न्यूज़ 18 की रिपोर्ट के अनुसार, दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को अगर बारीकी से पढ़ा जाए, तो यह साफ होता है कि इस केस में कई ऐसे मोड़ आए, जहां पीड़िता और उसके परिवार को मजबूत कानूनी समर्थन मिल सकता था, लेकिन वह नहीं मिला. सवाल यह है कि जब जांच सीबीआई के हाथ में थी, तब भी न्याय का रास्ता इतना कमजोर क्यों रहा?

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हाईकोर्ट का फैसला और सजा पर रोक

दिल्ली हाईकोर्ट ने कुलदीप सिंह सेंगर को POCSO एक्ट की धारा 5 और 6 के तहत दी गई उम्रकैद की सजा पर रोक लगा दी. अदालत ने कहा कि एक विधायक भारतीय दंड संहिता की धारा 21 के तहत “लोक सेवक” नहीं माना जा सकता, इसलिए इन धाराओं के तहत उम्रकैद नहीं दी जा सकती.

CBI का अहम कानूनी स्वीकारोक्ति

कोर्ट में केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) ने खुद यह स्वीकार किया कि सुप्रीम कोर्ट पहले ही स्पष्ट कर चुका है कि विधायक लोक सेवक नहीं होते. इसके बावजूद CBI ने कोर्ट से “purposive construction” यानी उद्देश्य आधारित व्याख्या अपनाने की अपील की, जिसे अदालत ने खारिज कर दिया.

2019 में पीड़िता का साथ नहीं दिया

कोर्ट के आदेश में यह भी दर्ज है कि 2019 में जब पीड़िता के परिवार ने मांग की थी कि सेंगर पर IPC की गंभीर धाराओं में मुकदमा चले क्योंकि वह सत्ता के प्रभाव वाला व्यक्ति था, तब CBI ने इस याचिका का समर्थन नहीं किया. एजेंसी ने कहा कि प्रस्तावित नई धाराएं “पूरी तरह लागू नहीं होतीं”.

ट्रायल कोर्ट का आदेश और CBI की खामोशी

2019 में ट्रायल कोर्ट ने पीड़िता की याचिका खारिज कर दी थी. दिल्ली हाईकोर्ट ने अब स्पष्ट रूप से कहा है कि न तो पीड़िता ने उस आदेश को चुनौती दी और न ही CBI ने उसका समर्थन किया. यह चुप्पी आज पूरे केस पर भारी पड़ती दिख रही है.

गलत धाराओं में दोषसिद्धि का असर

पीड़िता चाहती थी कि सेंगर को IPC की धारा 376(2)(f) और (k) के तहत दोषी ठहराया जाए, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. नतीजतन, अब कोर्ट ने कहा है कि POCSO की केवल धारा 3 ही लागू होती है, जिसकी अधिकतम सजा 7 साल है, जो सेंगर पहले ही जेल में काट चुका है.

जांच पर ट्रायल कोर्ट की तीखी टिप्पणी

हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट की उस टिप्पणी का भी हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि यह “अटल निष्कर्ष” है कि CBI के जांच अधिकारी ने निष्पक्ष जांच नहीं की. इस वजह से पीड़िता और उसके परिवार को सीधे तौर पर नुकसान हुआ.

उम्र से जुड़े सबूत दबाने का आरोप

पीड़िता के परिवार ने हाईकोर्ट में आरोप लगाया कि CBI के जांच अधिकारी ने सेंगर के साथ मिलीभगत कर पीड़िता की उम्र से जुड़े अहम सबूतों को सामने आने ही नहीं दिया. आरोप है कि असली दस्तावेज़ों की जगह झूठे और गढ़े हुए कागज़ कोर्ट में पेश किए गए.

जांच एजेंसियों पर भरोसे का संकट

यह मामला अब सिर्फ उन्नाव की पीड़िता तक सीमित नहीं रहा. यह सवाल खड़ा करता है कि जब जांच एजेंसी ही पीड़ित पक्ष के लिए मजबूती से खड़ी न हो, तो न्याय की उम्मीद कैसे की जाए? अदालत के शब्दों में दर्ज यह टिप्पणी भविष्य में CBI की कार्यप्रणाली पर लंबे समय तक सवाल बनकर रहेगी.

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