बिहार से पड़ी 'गैर कांग्रेसवाद' की नींव, 5 दशक पुराने उस श्राप से आज तक उबर नहीं पाई कांग्रेस, क्या है वजह?

बिहार में 1967 से शुरू हुआ 'गैर-कांग्रेसवाद' केवल चुनावी नारा नहीं बल्कि भारतीय राजनीति की धारा बदलने वाला आंदोलन था. उस समय जयप्रकाश नारायण और डॉ. राममनोहर लोहिया के विचारों से उपजा यह आंदोलन कांग्रेस की सत्ता को चुनौती देने वाली विपक्षी एकता का आधार बना. उसी आंदोलन ने कांग्रेस को ऐसा झटका दिया, जो देश की राजनीति में 5 दशक बाद बीतने के बाद भी जारी है. बीजेपी को कांग्रेस मुक्त भारत का नारा भी उसी से बहुत हद तक प्रभावित है.;

देश की आजादी की लड़ाई से जुड़ी कांग्रेस से लोग भावनात्मक स्तर पर इतना जुड़े थे कि गांधी और नेहरू की इस पार्टी को अपराजेय माना जाता था, लेकिन नेहरू के निधन के बाद 'एंटी इंकम्बेंसी' की लहर ने 1967 में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर दिया. इस मुहिम के नायक बने थे डॉ. लोहिया और जयप्रकाश नारायण. उन्होंने कहा था, 'कांग्रेस हटाओ, देश बचाओ.' यही वह दौर था जब देश में गैर-कांग्रेसवाद को लेकर नैरेटिव बनना शुरू हुआ था. अब इतना मजबूत हो गया है कि वो सत्ता में वापसी नहीं कर पा रही है.

विपक्षी एकजुटता की दिखी थी मिसाल

देश की राजनीति में आजादी के बाद पहली बार विपक्षी एकता की मिसाल दिखाई दी थी. सोशलिस्ट, जनसंघ, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और अन्य दल कांग्रेस के खिलाफ एक मंच पर आए और बिहार से कांग्रेस का सफाया कर दिया. उस दौर में समाजवादी नेता चाहे जिस भी प्रदेश के रहे हों, लेकिन उनके संघर्ष और पहचान का चेहरा बनता था बिहार में.

उस दौर में विपक्षी दलों के बीच एकता का इसी से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि जयप्रकाश नारायण पर पड़ने वाली लाठी को समाजसेवी नानाजी देशमुख ने रोका था. वैचारिक और सामुदायिक हितों की उसी प्रतिबद्धता ने परिणाम है कि बिहार में सत्ता से बेदखल हुई कांग्रेस आज भी हिंदी पट्टी में अपने पांव नहीं जमा पाई है.

धर्मवीर भारती ने हर खासो-आम को किया था आगाह

समाजवादी विचारधारा से जुड़े के उसी दौर के साहित्यकार धर्मवीर भारती ने पटना के जिस आयकर गोलंबर पर कुछ पंक्तियां लिखी थी वो आज भी वहीं पर जेपी की मूर्ति के साथ खुदी हुई है. धर्मवीर ने कांग्रेस की जन विरोधी सरकार को बारे में लिखा था'

'खल्क खुदा का, मुलुक बाश्शा का, हुकुम शहर कोतवाल का…, हर खासो-आम को आगाह किया जाता है कि खबरदार रहें. अपने किवाड़ों को अंदर से, कुंडी चढ़ाकर बंद कर लें. गिरा लें खिड़कियों के परदे, और बच्चों को बाहर सड़क पर न भेजें. क्योंकि एक बहत्तर बरस का बूढ़ा आदमी अपनी कांपती कमजोर आवाज में सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है…!’

धर्मवीर भारती की पंक्ति ने विरोध की एक ऐसी राह तैयार की जहां से कांग्रेस के खिलाफ विकल्प की राजनीति का कारवां गुजरा था. इतना ही नहीं, इमरजेंसी के दौरान जेपी पर पड़ी लाठी को रोकने के लिए चर्चित समाजसेवी नानाजी देशमुख खुद को पुलिस के सामने पेश कर दिया था.

नानाजी देशमुख ने नहीं की थी जान की परवाह

दरअसल, भारत रत्न नानाजी देशमुख जेपी के करीबी थे. पटना में उन पर (जेपी) प्राणघातक हमला किया गया था. नानाजी ने वार अपने ऊपर ले लिया. इस हमले में नानाजी को काफी चोटें आईं लेकिन वह जेपी को बचाने में कामयाब रहे.

जमीन पर कहां है कांग्रेस?

एक बार फिर बिहार में सियासी हलचल है. नवंबर में चुनाव होना है. राहुल गांधी एसआईआर के खिलाफ वोटर अधिकार यात्रा पर है, लेकिन जमीन पर कांग्रेस कहीं भी नहीं दिख रही है. बिहार के चुनाव में एक भी विमर्श, नारा या जुमला ऐसा नहीं है जो कांग्रेस के कुनबे से संबंध रखता है.

हालात यह है कि आज हर जगह पर कांग्रेस को भाजपा के साथ मुकाबला करना पड़ता है. कई राज्यों में तो वह क्षेत्रीय दलों की पिछलग्गू पार्टी भर है. अब सियासी खेल के नियम बीजेपी तय करती है. कांग्रेस को उसके अनुसार ही खेलना होता है. इसके बावजूद बिहार वह जगह भी है, जहां खेल के नियमों पर भाजपा का एकाधिकार नहीं है. उसे आरजेडी से कांटे की टक्कर मिल रही है, ये बात अलग है कि इस टक्कर को देने में कहीं भी कांग्रेस का दम-खम नहीं दिख रहा है. बिहार में कांग्रेस की यह हालत राजीव गांधी के समय ही हो गई थी.

बिहार में कांग्रेस हालत ऐसी है कि वो अपने हिसाब से सीटों का मोल-भाव भी नहीं कर पा रही है. पूरे चुनावी माहौल में चिराग पासवान, प्रशांत किशोर, मुकेश सहनी, पुष्पम प्रिया और पप्पू यादव हैं, लेकिन कांग्रेस नहीं है. कांग्रेस कौन सा मुद्दा लेकर जनता के बीच उतरी है, उसकी प्राथमिकताएं क्या हैं, यह बात आम जनता तक नहीं पहुंच पा रही है. कांग्रेस के सियासी तौर तरीके से साफ लग रहा है कि वो भेड़चाल में फंसी है.

क्या है गैर कांग्रेसवाद?

दरअसल, 1974 के जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण आंदोलन को ‘बिहार आंदोलन’ ही कहा गया था जो कांग्रेस के विरोध में था. आज जो लोग ऐतिहासिक नजरिए से नई तारीखी मिसालों से भाजपा की राजनीति का विश्लेषण कर रहे हैं, वे इस बात को रेखांकित करते हैं कि राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा की जमीन बिहार से ही बनती है. इसी के उलट कांग्रेस का राष्ट्रीय स्तर पर सियासी एकाधिकार बिहार से ही उखड़ा था.

नरसिंह राव के समय में ही नेहरू-गांधी परिवार खुद को हाशिए पर महसूस करने लगा था. उसे लग रहा था कि वह नेतृत्व के नियंत्रण से कट रहा है. सीताराम केसरी इसी बिहार के थे और कांग्रेस ने अपने डिजिटल इतिहास में उनके पन्ने को जिस तरह से फाड़ दिया, वह एक अलग से विमर्श का विषय है.

लोग भूले नहीं सीताराम केसरी वाला एपिसोड

यह वही कांग्रेस है जिसने बिहार के सीताराम केसरी के लिए जुमला उछाला गया था, ‘ओल्ड मैन इन हरी.’ सीताराम केसरी अच्छे या खराब नेता रहे होंगे, लेकिन उनसे जिस तरह से पार्टी अध्यक्ष का पद छीना गया, वह नेहरू-गांधी परिवार के चेहरे पर कलंक है. बिहार की जनता को आज भी वह घटना याद है, जब कांग्रेस का दिल्ली दरबार ने सीताराम केसरी के पैर के नीचे से जमीन खींच ली थी. उस वक्त बिहार में लालू यादव बिहार में अपनी जमीन पुख्ता करने में जुटे थे.

उसके बाद कांग्रेस को लगा था कि लालू यादव के बहाने वह राष्ट्रीय स्तर पर एक क्षेत्रीय पार्टी का गटक सकती है, लेकिन हुआ इसका उलटा बिहार में आरजेडी उसे अधिगृहीत करता चला गया. तब से लेकर तीस साल हो गए। आज स्थिति यह है कि कभी पूरी पार्टी हारती है, कभी उसका अध्यक्ष हारता है. क्षेत्रीय दलों की मेहरबानी से ही कोई कांग्रेसी नेता विधान परिषद तो राज्यसभा में पहुंचता है.

कैसे बनी विकल्पहीन पार्टी

इस बीच मंडल का पूरा कारवां गुजर गया और कांग्रेस खड़ी-खड़ी गुबार देखती रह गई. सामाजिक न्याय के लिए हुंकार भरने वाले बिहार में कांग्रेस पर लगे कलंक के धब्बे को अभी तक धो नहीं पाई. यहां पर बता दें कि बिहार में मंडल बनाम कमंडल और पिछड़ा-अति पिछड़ा की राजनीति ने कांग्रेस का जनाधार छीन पूरी तरह से छीन लिया. करिश्माई नेता कर्पूरी ठाकुर, लालू यादव और नीतीश कुमार ने कांग्रेस को विकल्प हीन बना दिया. यह स्थित दिल्ली हाईकमान पर ज्यादा भरोसा और स्थानीय नेतृत्व को दरकिनार करने से पार्टी कमजोर हुई है.

अभी तक क्यों नहीं उबर पाई कांग्रेस?

दरअसली, बिहार में कांग्रेस कोई ऐसा चेहरा नहीं खड़ा कर पाई जो जनता से जुड़ा हो. कन्हैया कुमार और राजेश राम बरसाती मेंढक की तरह हैं. पप्पू यादव का कुछ इलाके में जमीनी आधार है तो पार्टी के लोग ही आगे बढ़ने नहीं दे रहे हैं. यानी जातीय समीकरण ने कांग्रेस को हाशिए पर धकेल दिया. कांग्रेस का वोट बैंक आज बीजेपी, नीतीश कुमार और आरजेडी के पास है. पार्टी अपने वोट को खुद से न जोड़ पाने के लिए विवश है.

गठबंधन के इस दौर में कांग्रेस बिहार में खुद लड़ने की स्थिति में नहीं, सिर्फ सहयोगी दल की भूमिका में रह गई है. 1990 के बाद कांग्रेस बिहार में कभी सत्ता में नहीं लौट पाई. कांग्रेस न तो बिहार में अपनी खोई हुई जमीन वापस पा सकी और न ही क्षेत्रीय दलों की राजनीति के सामने खुद को मजबूत कर पाई है.

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