150 सीटों से कम जीते तो... Exit Polls में हारी प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी, एनडीए के पक्ष में क्यों हुई हवा?
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के एग्जिट पोल ने बड़ा राजनीतिक संकेत दिया है. प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी, जिसके बारे में कहा गया था ‘अर्श पे या फर्श पे’, एग्जिट पोल में लगभग शून्य पर सिमटती नजर आ रही है. वहीं एनडीए को जबरदस्त बढ़त मिलती दिख रही है, जिससे साफ है कि नीतीश कुमार और बीजेपी की जोड़ी ने फिर से जनता का भरोसा जीता है. महागठबंधन के लिए यह नतीजे झटका साबित हो सकते हैं, जबकि जन सुराज का सपना उम्मीदों से बहुत पीछे रह गया है.;
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के दूसरे चरण के मतदान के बाद जैसे ही एग्जिट पोल आए, राजनीतिक हलकों में हलचल मच गई. इन सर्वेक्षणों ने राज्य की सियासत में नया मोड़ जोड़ दिया है, क्योंकि पहली बार प्रशांत किशोर की पार्टी जन सुराज किसी बड़े लोकतांत्रिक इम्तिहान से गुज़री है. लेकिन शुरुआती संकेत बताते हैं कि जनता ने उन्हें वह समर्थन नहीं दिया, जिसकी उम्मीद खुद पीके कर रहे थे.
एक वक्त था जब प्रशांत किशोर भारत की सबसे बड़ी पार्टियों के चुनावी रणनीतिकार रहे, लेकिन इस बार वो खुद उम्मीदवारों के साथ मैदान में थे. “अर्श या फर्श” - यही वाक्य उनका चुनावी नारा बन गया था. मगर एग्जिट पोल के नतीजों में फिलहाल जन सुराज का नाम न के बराबर सीटों के साथ दर्ज है, जिससे लगता है कि बिहार की ज़मीन पर पीके की राजनीतिक पारी को अभी लंबा रास्ता तय करना है.
उम्मीदों और हकीकत के बीच फंसा जन सुराज
प्रशांत किशोर ने पिछले दो वर्षों में एक लंबी जन संवाद यात्रा की, दावा किया कि बिहार को “तीसरे विकल्प” की ज़रूरत है. गाँवों में रुककर, स्कूलों और पंचायतों में बैठकर उन्होंने राज्य की नब्ज़ समझने की कोशिश की. मगर एग्जिट पोल बताते हैं कि जन सुराज फिलहाल जनता की नब्ज़ नहीं पकड़ सका. कई सर्वे में पार्टी को 0 से 4 सीटों के बीच आंका गया है — यानी संगठन के स्तर पर मेहनत तो दिखी, पर वोटों में तब्दील नहीं हो सकी.
सर्वे में निराशाजनक प्रदर्शन, पर उम्मीद ज़िंदा
मैट्रिज, पीपुल्स पल्स, जेवीसी और पी-मार्क जैसे प्रमुख एग्जिट पोल्स के मुताबिक, जन सुराज का औसत प्रदर्शन “सीमित प्रभाव” वाला है. पीपुल्स पल्स ने उसे अधिकतम 5 सीटें दीं, जबकि कई सर्वे ने एक भी सीट न मिलने का अनुमान जताया. हालांकि, कुछ राजनीतिक विश्लेषक यह भी मानते हैं कि जन सुराज की असली परीक्षा सीटों से ज्यादा, उसके वोट प्रतिशत से झलकेगी. अगर पार्टी को 3-5% तक वोट मिले, तो यह बिहार में “स्थायी तीसरे फ्रंट” की नींव रख सकता है.
महागठबंधन की रणनीति हुई कमजोर
एग्जिट पोल्स के मुताबिक, महागठबंधन (राजद-कांग्रेस गठजोड़) पिछली बार की तुलना में पिछड़ता दिख रहा है. 2020 में जहां गठबंधन 110 सीटों तक पहुँचा था, इस बार अनुमान सिर्फ 85-95 के बीच हैं. इसका सीधा मतलब है कि तेजस्वी यादव के “नौकरी और रोजगार” के एजेंडे ने वैसा असर नहीं छोड़ा जैसा उम्मीद थी. जनसभाओं में भीड़ जुटी, पर वह वोटों में नहीं बदल पाई.
एनडीए का समीकरण क्यों हुआ मजबूत?
इस चुनाव में एनडीए (बीजेपी-जेडीयू) को जो बढ़त एग्जिट पोल में दिखाई दे रही है, उसके पीछे कई कारण हैं. नीतीश कुमार का प्रशासनिक अनुभव, बीजेपी का संगठनात्मक नेटवर्क और प्रधानमंत्री मोदी की विकास और स्थिरता की छवि — तीनों ने मिलकर जमीनी स्तर पर भरोसे की लहर बनाई. महिलाएं और पहली बार वोट डालने वाले युवा एनडीए की योजनाओं और सुविधा-आधारित शासन से प्रभावित हुए. इस बार वोट “भावनात्मक” कम, “प्रायोगिक” ज़्यादा दिख रहा है.
‘तीसरे विकल्प’ की कहानी अधूरी रही
बिहार में तीसरे मोर्चे की राजनीति नई नहीं है, लेकिन स्थायी भी नहीं रही. कभी उपेंद्र कुशवाहा, कभी जीतनराम मांझी — कई नेता इस सपने को आजमा चुके हैं. अब प्रशांत किशोर भी उसी राह पर हैं, लेकिन उनकी चुनौती बड़ी थी क्योंकि वे “बाहरी रणनीतिकार” से “भीतरी नेता” बने. बिहार की जातीय और क्षेत्रीय जटिलताओं के बीच उनका “मॉडल-आधारित सुधार” वाला संदेश आम मतदाता तक शायद वैसा नहीं पहुंचा जैसा उन्होंने सोचा था.
जनता ने भरोसे पर मुहर लगाई, प्रयोग पर नहीं
एग्जिट पोल इस बात का संकेत हैं कि मतदाता इस बार “स्थिरता” को प्राथमिकता दे रहे हैं. पीके की अपील “बदलाव” की थी, लेकिन नीतीश-बीजेपी गठजोड़ की अपील “निरंतरता” की. मतदाताओं ने लगता है कि “सिस्टम बदलो” की बजाय “सिस्टम को सुधरो” वाला रास्ता चुना है. यही वजह है कि नई पार्टी को मौके की बजाय संशय मिला.
क्या पीके अब दोबारा रणनीतिकार बनेंगे?
राजनीतिक गलियारों में अब यह सवाल उठने लगा है कि क्या प्रशांत किशोर फिर से राजनीतिक सलाहकार की भूमिका में लौटेंगे? 2025 के ये चुनाव उनके लिए सिर्फ एक चुनाव नहीं, बल्कि राजनीतिक आत्मपरीक्षा थे. अगर पार्टी उम्मीद के मुताबिक प्रदर्शन नहीं करती, तो उन्हें तय करना होगा कि वे ज़मीनी राजनीति में रहेंगे या फिर राष्ट्रीय स्तर पर किसी बड़े गठबंधन के रणनीतिकार बनेंगे.
एग्जिट पोल अंत नहीं, संकेत हैं शुरुआत के
इतिहास गवाह है कि एग्जिट पोल कई बार नतीजों से उलट साबित हुए हैं. 2015, 2020 जैसे चुनावों में भी. इसलिए जन सुराज के लिए यह कहानी खत्म नहीं, बल्कि शुरुआत है. प्रशांत किशोर जिस “दीर्घकालिक मिशन” की बात करते हैं, उसके लिए यह पहला सबक है कि ज़मीन पर राजनीति केवल विचार या विज़न से नहीं, बल्कि संगठन, जातीय समीकरण और स्थानीय भरोसे से बनती है.