भगवान ब्रह्मा बने पुजारी, तो विष्णु पार्वती के भाई, इस मंदिर में संपन्न हुआ था शिव-पार्वती का विवाह
महाशिवरात्रि के दिन भगवान शिव की पूजा की जाती है. शिव और पार्वती के विवाह को दुनिया का पहला प्रेम विवाह माना जाता है. यह विवाह एक धार्मिक और पौराणिक घटना के रूप में प्रसिद्ध है. शिव और पार्वती के विवाह का वर्णन कई पौराणिक ग्रंथों में किया गया है, जिनमें शिव महापुराण और देवी भागवत प्रमुख हैं.;
इस साल महाशिवरात्री का त्योहार 26 फरवरी को मनाया जाएगा. मान्यता है कि इस दिन भगवान शिव और पार्वती का विवाह हुआ था, लेकिन क्या आप जानते हैं यह विवाह कहां संपन्न हुआ था? पुराणों की मानें, तो भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जनपद के त्रियुगीनारायण मंदिर में हुआ था.
त्रियुगीनारायण मंदिर में अखंड अग्नि जलती है. मान्यता है कि भगवान शिव और माता पार्वती ने इस ही अग्नि के सामने सात फेरे लिए थे. इस कारण से अग्नि का महत्व बेहद ज्यादा है.
क्यों खास है यह मंदिर
यह मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है. इस मंदिर में हमेशा धूनी जलती है. वहीं, मंदिर में चार पानी के कुंड हैं. इनमें स्नान के लिए रुद्र कुंड, पानी पीने के लिए ब्रह्मा कुंड, सफाई के लिए विष्णु कुंड और तर्पण देने के लिए सरस्वती कुंड शामिल है.
भगवान ब्रह्मा बने थे पुजारी
मान्यता है कि शिव-पार्वती के विवाह में भगवान ब्रह्मा ने पुजारी की भूमिका निभाई थी. वहीं, भगवान विष्णु दुल्हन के भाई बने थे. इस मंदिर में एक ब्रह्म शिला है, जिसके लिए कहा जाता है कि यह पत्थर शादी की जगह को दिखाता है.
शिव और देवी सती की कहानी
देवी सती का जन्म दक्ष प्रजापति और उनकी पत्नी वीरा के घर हुआ था. दक्ष प्रजापति बहुत बड़े यज्ञ करने वाले थे और वह भगवान शिव को सम्मान नहीं देते थे. उन्होंने अपनी बेटी सती का विवाह भगवान शिव से किया. एक बार दक्ष ने एक यज्ञ का आयोजन किया और सभी देवताओं को आमंत्रित किया, लेकिन उन्होंने भगवान शिव को नहीं बुलाया. सती ने जब सुना कि उनके पिता ने भगवान शिव को यज्ञ में नहीं बुलाया, तो वह बहुत क्रोधित और दुखी हुईं.
सती ने त्यागा था शरीर
सती ने अपने पिता के यज्ञ में जाने का निर्णय लिया, लेकिन भगवान शिव ने सती को रोकने की कोशिश की, लेकिन वह नहीं मानी. जब सती अपने पिता के यज्ञ में पहुंची, तो दक्ष ने उनका अपमान किया और भगवान शिव के प्रति उनकी अवहेलना की. इस अपमान से दुखी होकर सती ने अपने शरीर को त्यागने का निर्णय लिया और यज्ञ की अग्नि में कूद गईं, जिससे उनकी मृत्यु हो गई.