चुनाव आयोग के नोटिस मिलने के बाद आखिर क्यों सुसाइड कर रहे बंगाल के लोग? SIR को लेकर CEC के खिलाफ शिकायत
चुनाव आयोग की एक औपचारिक चिट्ठी अब पश्चिम बंगाल में डर और सदमे की वजह बनती जा रही है। SIR (स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन) के तहत भेजे जा रहे नोटिस मिलने के बाद लगातार आत्महत्याओं की खबरों ने पूरे राज्य को झकझोर कर रख दिया है. सवाल उठ रहा है कि जिस प्रक्रिया का मकसद सिर्फ वोटर लिस्ट को दुरुस्त करना था, वही लोगों की जान पर क्यों बन आई?;
एक नोटिस… एक तारीख… और उसके बाद टूटा हुआ भरोसा. पश्चिम बंगाल में वोटर लिस्ट से जुड़े SIR (स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन) नोटिस अब सिर्फ प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं रह गए हैं, बल्कि कई परिवारों के लिए डर, तनाव और मौत की वजह बनते जा रहे हैं. सवाल उठ रहा है कि आख़िर SIR में नाम न होने का डर लोगों को इस हद तक क्यों तोड़ रहा है कि वे अपनी जान तक दे रहे हैं?
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बीते दिनों SIR नोटिस मिलने के बाद तीन लोगों की मौत के मामलों ने प्रशासन और चुनाव आयोग दोनों को कटघरे में खड़ा कर दिया है. मृतकों के परिजनों ने सीधे तौर पर मुख्य चुनाव आयुक्त (CEC) के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई है.
नोटिस मिलने पर ट्रेन के आगे कूदकर दे दी जान
पुरुलिया के 82 वर्षीय दुर्जन माझी को जब SIR सुनवाई का नोटिस मिला, तो वे भीतर से टूट गए. बेटे कनई माझी का कहना है कि उनके पिता का नाम 2002 की फिजिकल वोटर लिस्ट में था, लेकिन चुनाव आयोग की वेबसाइट पर अपलोड की गई सूची में तकनीकी गड़बड़ी के कारण नाम गायब था. इसी वजह से उन्हें सुनवाई के लिए बुलाया गया. तय तारीख से कुछ घंटे पहले दुर्जन माझी ने चलती ट्रेन के आगे कूदकर जान दे दी.
मानसिक दबाव बना मौत की वजह?
ऐसा ही दर्दनाक मामला हावड़ा से सामने आया, जहां 64 साल के जमात अली शेख को नोटिस मिलने के कुछ ही देर बाद उनकी तबीयत बिगड़ी और उनकी मौत हो गई. परिवार का आरोप है कि वैध मतदाता होने के बावजूद उन्हें संदिग्ध मानकर नोटिस भेजा गया, जिससे वे गहरे मानसिक तनाव में चले गए. परिजनों का कहना है कि वोट देने का अधिकार छिन जाने का डर उनके लिए असहनीय बन गया.
एक और मौत, और गहराता सवाल
मंगलवार को पूर्व मेदिनीपुर में 75 वर्षीय बिमल शी को अपने घर में फांसी पर लटका पाया गया. बताया गया कि वे भी सुनवाई नोटिस मिलने के बाद से बेहद परेशान थे. अब सवाल सिर्फ नोटिस का नहीं, बल्कि उस डर का है जो सिस्टम की एक चिट्ठी से पैदा हो रहा है.
SIR में नाम न होने का डर इतना खतरनाक क्यों?
ग्रामीण और बुजुर्ग मतदाताओं के लिए वोटर लिस्ट में नाम होना सिर्फ एक पहचान नहीं, बल्कि सम्मान और नागरिक अधिकार का प्रतीक है. उन्हें लगता है कि नाम कटने का मतलब है कि सरकारी योजनाओं से वंचित होना, नागरिकता पर सवाल और समाज में अपमान. इसी डर ने कई लोगों को अंदर से तोड़ दिया.
तकनीकी गड़बड़ी और बढ़ता भ्रम
चुनाव आयोग ने 27 दिसंबर को साफ किया था कि लगभग 1.3 लाख ऐसे मतदाता, जिनके नाम 2002 की फिजिकल लिस्ट में हैं लेकिन ऑनलाइन डेटाबेस में नहीं दिख रहे, उन्हें सुनवाई में शामिल होने की जरूरत नहीं है. लेकिन यह जानकारी ज़मीनी स्तर तक समय पर नहीं पहुंच सकी. नतीजा-नोटिस मिला, लेकिन भरोसा नहीं.
प्रशासन बनाम परिवारों का दर्द
परिवारों ने चुनाव आयोग के शीर्ष अधिकारियों पर आरोप लगाए हैं, वहीं EC का कहना है कि संवैधानिक पदों पर बैठे अधिकारियों के खिलाफ FIR का प्रावधान नहीं है. लेकिन कानूनी बहस से इतर, असली सवाल यह है कि क्या एक तकनीकी गलती और अधूरी जानकारी लोगों की जान से बड़ी हो सकती है?
SIR का उद्देश्य वोटर लिस्ट को दुरुस्त करना है, न कि लोगों को डराना. फिर ऐसा क्या बदला कि वोटर लिस्ट से नाम गायब होने का डर, मौत की वजह बनने लगा? शायद अब सिस्टम को यह समझना होगा कि हर नोटिस सिर्फ एक कागज़ नहीं, बल्कि किसी की ज़िंदगी पर भारी पड़ सकता है.