जेल से जन-आंदोलन तक पहुंचे, तब लिखी गई आज़ादी की इबारत, कहानी बंटवारे के खिलाफ जाने वाले मौलाना अबुल कलाम आजाद की
मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की ज़िंदगी जेल की कोठरी से पैदा हुए उस इंकलाब की कहानी है जो नजीर बन गई. अपनी कलम से अंग्रेजों की चूलें हिला देने वाले आजाद पहले ऐसे नेता थे जिन्होंने अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ अपने अख़बार 'अल-हिलाल' और 'अल-बलाग़' के जरिए जंग छेड़ी. आप पढ़ रहे हैं 'आजादी के मुस्लिम परवाने' सीरीज की पहली पेशकश, जिसमें मुझे यानी मौलाना अबुल कलाम आज़ाद को जानने का मौका मिलेगा.;
साल था 1916, मौसम में हल्की ठंडक थी. कोलकाता की अलीपुर जेल की एक कोठरी में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद अपनी लिखाई में मशगूल थे. अचानक एक पहरेदार ने ताला खोला और कहा, "आपसे कोई मिलने आया है." सामने खड़ी थीं एक बुज़ुर्ग मुस्लिम महिला. चेहरा दर्द से भरा, लेकिन आंखों में चमक थी. उन्होंने कांपती आवाज़ में कहा, "बेटा, मेरे बेटे को भी इसी अंग्रेज सरकार ने बंदी बना रखा है. तुम जैसे पढ़े-लिखे लोग अगर चुप रहोगे, तो हमारा क्या होगा?"
उस दिन मौलाना की कलम रुक गई और एक नई क्रांति उनके भीतर जन्मी. उन्होंने फैसला किया कि अब सिर्फ लेखनी नहीं, बल्कि आंदोलन की अगुवाई भी करेंगे. यही वह क्षण था, जब एक पत्रकार, लेखक और विचारक क्रांतिकारी नेता बन गया. यहीं से शुरू होती है अबुल कलाम आज़ाद की वह कहानी, जिसने भारत के स्वाधीनता संग्राम को एक नई दिशा दी.`
अबुल कलाम आज़ाद सिर्फ एक नाम नहीं था. वह एक आंदोलन थे, एक विचार थे, एक आवाज़ थे जो धर्म, तालीम, स्वतंत्रता और एकता की बात करता था. उनका जीवन किसी उपन्यास से कम नहीं, जिसमें बचपन में अरब की गलियों की खुशबू है, किशोरावस्था में तुर्की की क्रांति से प्रभावित सोच है और युवावस्था में जेल की सीख है.
आज़ाद पहले ऐसे नेता थे जिन्होंने अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ अपने अख़बार 'अल-हिलाल' और 'अल-बलाग़' के जरिए जंग छेड़ी. उन्होंने मुसलमानों को बताया कि अंग्रेज़ों की गुलामी सिर्फ धर्म नहीं, इंसानियत के खिलाफ है. जब उन्हें इस लेखन के लिए जेल भेजा गया, तो उन्होंने वहां "ग़ुब्बारे-ख़याल", "तर्जुमान-उल-क़ुरान" जैसी किताबें लिखीं जिससे उनकी सोच और भी धारदार होती गई.
जहां एक ओर उस दौर में हिंदू-मुस्लिम तनाव बढ़ रहा था, वहीं मौलाना आज़ाद एकमात्र नेता थे जो दोनों समुदायों में पुल का काम कर रहे थे. वे कहते थे, "मैं मुस्लिम हूं और मुझे इस पर फख्र है, लेकिन भारत मेरा वतन है और इस पर मुझे उससे भी ज़्यादा फख्र है."
मैं कोई आम नेता नहीं था. मैं केवल एक मज़हबी व्यक्ति नहीं था. मैं हिंदुस्तान की आत्मा से जुड़ा था- उसकी मिट्टी, उसकी भाषा, उसकी संस्कृति और उसकी साझा तहज़ीब से. मैंने कई बार अपने दिल से पूछा था, “क्या मेरी पहचान एक मुसलमान की है या एक हिंदुस्तानी की?” और हर बार जवाब मिला- “मैं हिंदुस्तानी हूं, पूरे दिल से, पूरे ज़मीर से.”
मैं मौलाना अबुल कलाम आज़ाद हूं- एक ज़मीर की आवाज़. मेरा जन्म 11 नवंबर 1888 को मक्का में हुआ था. मेरे पिता एक मज़हबी विद्वान थे, जो जल्द ही भारत लौट आए और कलकत्ता को अपना घर बना लिया. मेरी परवरिश मज़हबी माहौल में हुई- कुरान, हदीस, अरबी, फारसी और दर्शनशास्त्र की पढ़ाई ने मेरे भीतर ज्ञान की भूख पैदा कर दी. लेकिन मैंने केवल धर्म को पढ़ा नहीं, बल्कि सवाल करना सीखा और यहीं से मेरी सोच में बदलाव आने लगा.
मुझे लेखन से बेहद लगाव था. 'अल-हिलाल' और 'अल-बलाग़' जैसे अखबारों के ज़रिये मैंने ब्रिटिश हुकूमत की नींव हिला दी थी. मेरे लेख आग की तरह फैलते और अंग्रेजों की नज़रों में चुभते. जब मेरी कलम पर पहरा लगा, तो मैंने कहा, “अगर अल्फ़ाज़ पर बंदिश लगे तो खून बोलेगा.” मेरी सोच ने मुझे केवल पत्रकार नहीं, बल्कि एक क्रांतिकारी बना दिया.
18 जनवरी 1920 को मेरी ज़िन्दगी का वह मोड़, जब पहली बार महात्मा गांधी से मुलाकात हुई. वह एक संत थे और मैं आजादी का एक अदना सा मतवाला. लेकिन हमारे विचारों में एक अद्भुत संगति थी. सत्याग्रह, असहयोग और हिंदू-मुस्लिम एकता इन मूल्यों ने हमें बांध दिया.
मैंने खिलाफत आंदोलन का नेतृत्व किया, जिससे मुस्लिम समुदाय को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से जोड़ा. गांधी जी और मैंने साथ मिलकर यह साबित किया कि भारत केवल हिंदुओं या मुसलमानों का नहीं, बल्कि सबका है. मुझे गर्व है कि मैं कांग्रेस का सबसे युवा अध्यक्ष बना – 1923 में, केवल 35 वर्ष की उम्र में.
मुझे कई बार ‘मुस्लिम नेता’ कहा गया, लेकिन मैंने कभी खुद को उस दायरे में सीमित नहीं किया. जिन्ना की "दो राष्ट्र" की थ्योरी मेरे दिल को चीरती थी. मैंने कहा था- “धर्म राष्ट्र की नींव नहीं हो सकता.” मैंने हर मंच से पाकिस्तान के गठन का विरोध किया. मेरा यकीन था कि भारत की विविधता ही उसकी ताक़त है.
1940 में जब मैं दोबारा कांग्रेस अध्यक्ष बना, तो हालात और भी संगीन हो चुके थे. और फिर आया वो दौर 9 अगस्त 1942 - भारत छोड़ो आंदोलन. गांधी जी ने देश को आवाज़ दी और हम सबने उसे अपना कर्तव्य समझा. मैं गिरफ्तार हुआ. तीन साल जेल में बिताए, ये सोचते हुए कि देश किस ओर जा रहा है.
15 अगस्त 1947 – देश आज़ाद हुआ, पर मेरा दिल रो रहा था. मैं उस भीड़ का हिस्सा नहीं बन सका जो जश्न मना रही थी. मेरी आंखों के सामने सांप्रदायिक दंगे, लाशें, बंटवारा और टूटे हुए परिवार थे. मैंने मुसलमानों से कहा – “रुको, यही तुम्हारा देश है. पाकिस्तान जाना, अपनी जड़ों को काट देना है.”
मुझे आज भी याद है वो दिन, जब एक स्टेशन पर मैंने सैकड़ों मुसलमानों को रोते देखा – वे पाकिस्तान जाने के लिए ट्रेन पकड़ने आए थे. मैंने उन्हें समझाया, रोका, गले लगाया – कुछ मान गए, कुछ नहीं. लेकिन मेरा ज़मीर शांत था- मैंने कोशिश की थी.
आजादी के बाद शुरुआत में मैंने कैबिनेट का हिस्सा बनने से इनकार किया था. लेकिन गांधी जी और नेहरू जी के बार-बार समझाने के बाद मैं तैयार हुआ. लेकिन शर्त पर कि मैं शिक्षा मंत्रालय लूंगा. मुझे यकीन था कि देश की असली आज़ादी तभी पूरी होगी जब हर बच्चा, हर नौजवान शिक्षित होगा. मैंने आईआईटी, यूजीसी, साहित्य अकादमी, संगीत नाटक अकादमी और आईआईएससी जैसे संस्थानों की बुनियाद रखी. मेरा सपना था – “हर बच्चा पढ़े, हर ज़हन सोच सके, हर दिल सवाल कर सके.”
11 नवंबर को मेरे जन्मदिन को राष्ट्रीय शिक्षा दिवस के रूप में मनाया जाता है. यह मेरे लिए नहीं, बल्कि उस सोच के लिए है जो कहती है – “किताबें तलवारों से ज्यादा ताक़तवर होती हैं.”
मैंने अपने आखिरी वर्षों में खुद को सार्वजनिक जीवन से अलग कर लिया था, लेकिन मेरे विचार, मेरे लेख, मेरे भाषण – आज भी जिंदा हैं. ‘इंडिया विंस फ्रीडम’ मेरी आत्मकथा है, जिसमें मैंने बेबाक होकर सब कुछ कहा. यहां तक कि कांग्रेस के नेताओं से अपने मतभेद भी. 1958 में जब मेरी मृत्यु हुई, तो मेरे जनाज़े में वो सारे मज़हब, सारे तबके, सारे विचारधाराओं के लोग शामिल हुए. शायद यही मेरी सबसे बड़ी जीत थी – एक इंसान के तौर पर पहचाना जाना.
अगर आज मैं ज़िंदा होता, तो फिर यही कहता, “भारत केवल एक भूगोल नहीं, एक सोच है. यह सोच गंगा-जमुनी तहज़ीब की है, जहां मंदिर की घंटी और मस्जिद की अज़ान साथ गूंजती है. इसे किसी मज़हब में मत बांटो. इसे मोहब्बत से सींचो.”
- मौलाना अबुल कलाम आज़ाद