Emergency @50: इंदिरा गांधी बोलीं- बिकने की कीमत बोलो, जज बोले- बिकाऊ नहीं हूं! और लग गया भारत में 'आपातकाल'
1975 के आपातकाल के दौरान जब इंदिरा गांधी सत्ता के खिसकते सिंहासन को बचाने की जद्दोजहद में थीं, तब उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट के ईमानदार जज जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा को भी झुकाने की कोशिश की. मगर न पैसा, न पावर और न ही पॉलिटिकल दबाव उस न्यायप्रिय जज पर असर डाल सका. जस्टिस सिन्हा आज भी न्याय की मिसाल हैं.;
कहते हैं कि “पैसा-पावर-पॉलिटिक्स” के सामने दुनिया नत-मस्तक होती है. इनके बलबूते संसार में सबकुछ खरीदा जा सकता है. सिवाए एक अदद परमात्मा की दी हुई ‘जिंदगी’ के. मौजूदा दौर के नेताओं-धन्नासेठों को अगर इन तीनों ही बेजा चीजों के बलबूते ‘जिंदगी’ खरीदने का कोई शहर 28 लोक में मिल जाए तो वे जिंदगी की खरीद-फरोख्त के काले-कारोबार की भी ‘दुकान’ सजा कर बैठ जाएं.
खैर छोड़िए. हम जिक्र कर रहे हैं भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की आयरन लेडी इंदिरा गांधी और उनके द्वारा अब से 50 साल पहले यानी 25 जून 1975 को लगाए गए मनहूस-निरकंशु ‘आपातकाल’ (Emergency 25 June 1975) की. जिनके पलक झपकाने पर राजनीति के बड़े से बड़े ताकतवर “बरगदों” के फूल-पत्ते इंदिरा गांधी के पांवों में गिर पड़ते थे. हम जिक्र कर रहे हैं कांग्रेस की दबंग और दुनिया की आयरन लेडी इंदिरा गांधी की.
जस्टिस का ईमान नहीं डगमगा सकीं इंदिरा
उन्हीं इंदिरा गांधी का जिक्र, देश के वरिष्ठ और पूर्व सांसद के सी त्यागी के मुताबिक. “जो 1970 के दशक में घिरी रहती थीं अपने अंधभक्तों-चापलूस-चमचों की चांडाल चौकड़ी की चार-दिवारी से.” जिक्र उन्हीं जिद्दी इंदिरा गांधी का जिन्होंने अपने हाथों से खिसकते सत्ता के सिंहासन को कब्जाए रखने की मैली मंशा के चलते, अब से करीब 50 साल पहले खरीदना चाहा था इलाहबाद हाईकोर्ट के 24 कैरेट के ईमानदार जज जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा को.
राजनीति के महल में खुद की खूबसूरत कुर्सी को दीमक लगता देख जिन जस्टिस जगमोहन सिन्हा की इंदिरा गांधी और उनके सिपहसालारों ने लगा दी थी ‘मुंह खोलकर बोली’ या कहिए “बिकने की कीमत”. यह तो बिरला और जिगर व ईमान के मजबूत 24 कैरेट सोने से पके हुए जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा का ही सीना था जो, अपनी सत्ता को बचाने की खातिर किसी भी हद तक जाकर गिरने पर तुली बैठी इंदिरा गांधी द्वारा पद-पैसा-पावर का कोई टोटका या जादू टोना, दबंग न्यायाधीश मगर बेहद साधारण इंसान और उसूलों के पक्के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा के ऊपर असरदार साबित नहीं हुआ.
...तो इंदिरा का बच जाता सिंहासन
भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश में 25 जून 1975 को लगे बदनाम “आपातकाल’ के 50 वर्ष पूरे होने के अवसर पर, इलाहाबाद हाईकोर्ट के तत्कालीन जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा का जिक्र करना जरूरी है. क्योंकि अगर जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा अपनी ईमानदारी-सत्यनिष्ठा से कहीं डिग गए होते, तो राजनीति की दुनिया में चतुर-दिमाग इंदिरा गांधी तो अपना सिंहासन बचा ले जाती. लेकिन इंदिरा गांधी की चतुर चालों के झांसे में फंस चुकने वाले जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा खुद को अपनी ही नजरों में कभी माफ नहीं कर पाते. इतना ही नहीं इंदिरा गांधी द्वारा अपनी स्वार्थ-सिद्धि की खातिर जस्टिस सिन्हा की “खरीददारी” के लिए लगाई गई बोली, अगर जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा मंजूर कर लेते, तो शायद हड़बड़ाई इंदिरा गांधी देश में न आपातकाल लगातीं और न ही भारत में कांग्रेस (Indian National Congress) और इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) का वैसा पतन ही हुआ होता, जैसा जमाने ने कालांतर में देखा.
अपशगुन को भांप चुकी थीं इंदिरा गांधी
इस अवसर पर नई दिल्ली में मौजूद दिल्ली उच्च न्यायालय (Delhi High Court) के सेवा-निवृत्त न्यायाधीश जस्टिस एस एन ढींगरा (Delhi High Court Justice Shiv Narayan Dhingra) से एक्सक्लूसिव बात की स्टेट मिरर हिंदी के एडिटर क्राइम इनवेस्टीगेशन ने. जून 1975 में यानी अब से करीब 50 साल पहले, इंदिरा गांधी क्यों उतर आई थीं इलाहाबाद हाईकोर्ट (Allahabad High Court) के तत्कालीन जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा को खरीदने पर?
सवाल के जवाब में जस्टिस एस एन ढींगरा (Justice S N Dhingra) कहते हैं, “दुनिया यही जानती है अब तक कि भारत में इंदिरा गांधी ने आपातकाल 25 जून को लगाया. या आपातकाल लगने की शंका पर 12 जून 1975 को ही मुहर लगी थी. नहीं ऐसा नही है. सच्चाई यह है कि जिस दिन इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी के चुनाव को लेकर चल रहे मुकदमे में, अपना फैसला सुरक्षित (रिजर्व) करके रख लिया था. उसी दिन से ही सत्ता के सिंहासन से इंदिरा गांधी के उतरने के अपशगुन होने लगे हैं. और इस अंदर की बात को इंदिरा गांधी भांप चुकी थीं. अगर इंदिरा गांधी और कांग्रेस को जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा द्वारा लिखे जा रहे फैसले की भनक पहले ही नहीं लग गई तो फिर, वह सत्ता से अपना सिंहासन खिसकने का अंदाजा कैसे लगा सकीं? अगर उन्हें हाईकोर्ट का फैसला अपने खिलाफ जाने की भनक, फैसला बाहर आने से पहले ही नही लगी थी, तो फिर वह मुकदमा सुनने के बाद फैसला लिखने वाले जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा को खरीदने पर क्यों उतारू हो गईं?”
जस्टिस ढींगरा के सवालों में बहुत ताकत है
दिल्ली उच्च न्यायालय के रिटायर्ड न्यायाधीश शिव नारायण ढींगरा कहते हैं, “दरअसल जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने फैसला सुरक्षित रख लिया था. उसको खुली कोर्ट में पढ़कर उजाकर किया जाना बाकी था. फैसले की घोषणा खुली हाईकोर्ट में हो उससे पहले ही इंदिरा गांधी और उनके चारों ओर जुटे रहने वालों के साथ साथ पूरी कांग्रेस पार्टी में भी भूचाल आ चुका था. सबसे पहले इंदिरा गांधी और कांग्रेस ने जस्टिस जगमोहन सिन्हा तक इलाहाबाद उच्च न्यायालय के कुछ न्यायाधीशों के जरिए संदेश भिजवाया. उस संदेश में जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा को चारा डाला गया था कि उन्हें सुप्रीम कोर्ट का जज बना दिया जाएगा.”
जस्टिस जगमोहन के इंदिरा गांधी को दो टूक जवाब
सत्ता का सिंहासन हिलने का खिसकने पर इंदिरा गांधी और कांग्रेस किस कदर बिफर सकती है और किस हद तक गिर सकती है. इसका अंदाजा शायद जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा के पहले से ही रहा होगा. तभी तो उन्होंने इंदिरा गांधी के पास जो दो टूक जवाब भिजवाया उसे लेकर दिल्ली उच्च न्यायालय के रिटायर्ड जज शिव नारायण ढींगरा कहते हैं, “इंदिरा गांधी द्वारा सुप्रीम कोर्ट का जज बनाए जाने के प्रस्ताव को ठुकराते हुए जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने कहा था कि, मैं बहुत छोटा आदमी हूं. और मैं खुद को सुप्रीम कोर्ट के जज की कुर्सी के काबिल नहीं समझता हूं.”
जस्टिस सिन्हा ने खुद को घर में बंद किया
बात जारी रखते हुए जस्टिस एस एन ढींगरा कहते हैं, “जब इंदिरा गांधी द्वारा जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा की ओर सुप्रीम कोर्ट का जज बना दिए जाने का फेंका गया पासा हवा में उडा डाला गया तब, मरता क्या न करता वाली कहावत पर चलते हुए इंदिरा गांधी ने उस वक्त इलाहाबाद के सांसद के माध्यम से जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा तक अपना संदेश भिजवाया. यह सब तमाशा बढ़ता या कहिए पानी सिर से ऊपर जाता देखकर, अपने स्वाभिमान की खातिर जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने खुद को घर के अंदर बंद कर लिया. ताकि उनके फैसला सुनाए जाने तक वह किसी के दवाब में आ ही न सकें.”
बेहाल आयरन लेडी इंदिरा इस हद तक गिर गईं!
जिन इंदिरा गांधी का कांग्रेस में सिक्का चलता था. जिनके आगे-पीछे बरगद के दरखत की मानिंद मौजूद रहने वाले कांग्रेसी नेता ‘चूं’ नहीं कर पाते थे. जिन इंदिरा गांधी का लोहा अमेरिका रूस चीन जापान सब मानते थे. जिन इंदिरा गांधी को दुनिया आयरन लेडी समझती थी. हाथ से सत्ता का सिंहासन खिसकता देखकर वे ही इंदिरा गांधी, कुर्सी बचाने की खातिर हर हद से नीचे गिरने की जिद पर तुली या कहिए अड़ी बैठी थीं. कैसे? जवाब सुनिए दिल्ली हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज शिव नारायण ढींगरा से, “जब किसी भी तरह से जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा खुद को चंद कौड़ियों के बदले खुद को इंदिरा गांधी और कांग्रेस पार्टी के सामने बेचने को राजी नहीं हुए तो, इंदिरा गांधी और उनके सिपहसालारों ने जस्टिस सिन्हा के निजी सचिव पर फंदा फेंकना शुरू कर दिया.
जस्टिस सिन्हा को छोड़ कांग्रेस उनके PA से लिपटी!
जस्टिस सिन्हा ने अपने निजी सचिव को भी उनके बच्चों की कसम दिलाई और कहा कि वे इंदिरा गांधी वाले मामले में लिखाया जाने वाला फैसला, अपनी पत्नी और घर में बच्चों के साथ भी साझा नहीं करेंगे. जब जस्टिस सिन्हा का पीए भी कमजोर नहीं पड़ा और हाईकोर्ट में सुनाए जाने से पहले ही फैसले के बारे में इंदिरा गांधी व कांग्रेस को कानो-कान हवा तक नहीं लगी. तो जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा को इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से फोन करवाया गया. मगर जस्टिस सिन्हा ने उन्हें भी फैसले के बारे में, फैसला कोर्ट में पढ़कर सुनाने से पहले कुछ भी बताने से साफ इनकार कर दिया. हां, खरीद-फरोख्त की उन बेशर्म कोशिशों को कब्र में दफन करने के लिए जस्टिस सिन्हा ने 12 जून 1975 को अंतत: खुली हाईकोर्ट में अपना फैसला सुना दिया. जिसमें इंदिरा गांधी का पिछला चुनाव तो रद्द किया ही. साथ ही उनके ऊपर प्रतिबंध लगाया कि इंदिरा गांधा आगामी 6 साल तक कोई चुनाव नहीं लड़ेंगी.”
....ताकि गुंजाइश ही बाकी न बचे
जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा के जज्बे, ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा के कायल दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस एस एन ढींगरा कहते हैं, “लाख चाहने के बाद भी इंदिरा गांधी और कांग्रेस पार्टी जगमोहन लाल सिन्हा को नहीं खरीद सकी. 12 जून 1975 को जब उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट में फैसला सुनाया, तो उस फैसले के अंतिम पैराग्राफ उन्होंने अपने पीए से लिखवाने की बजाए खुद अपने हाथों से लिखे. ताकि फैसले के लीक होने की गुंजाइश ही बाकी न बचे. जैसे ही खुली कोर्ट में फैसला सुनाया गया वैसे ही श्रीमति इंदिरा गांधी तो बिफर गईं.”
न्यायपालिका, गणतंत्र, लोकतंत्र सब बहाने...!
अब से 50 साल पहले यानी जून 1975 में आपातकाल से ठीक पहले अपनी सत्ता की सलामती के लिए जिस तरह इंदिरा गांधी और कांग्रेस पार्टी घिनौनी-घटिया हरकतें अंजाम देने पर उतर आई थी, उसने साबित कर दिया था कि जो नेता-मंत्री आमजन को भाषण पिलाते हैं कि वे न्यायपालिका, गणतंत्र, मौलिक अधिकारों की स्वतंत्रता और लोकतंत्र में विश्वास रखते हैं, वे सब झूठ और फरेबी हैं. सब मौका और मतलबपरस्त हैं. जहां उनका स्वार्थ पूरा होता है बस वही ठीक है. बाकी सब गलत. जैसे कि इंदिरा गांधी को जब तक लगा कि उनकी सत्ता खतरे में नहीं है. वे मनमर्जी करती रहीं. जैसे ही उन्हें सत्ता अपने से दूर जाती दिखाई पड़ी, तो वे अपनी पर उतरकर उसी न्यायपालिका के जज को खरीदकर सौदा करने पर उतर आईं, जहां हर कोई न्याय की उम्मीद में पहुंचता है.
इंदिरा गांधी को ‘टुकड़ा’ डालने की पुरानी आदत थी!
बातचीत के दौरान दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश शिव नारायण ढींगरा कहते हैं, “ऐसा नहीं है कि कांग्रेस पार्टी या इंदिरा गांधी ने अब से पचास साल पहले कानून पर चाबुक चलाकर उसे अपने मुताबिक हांकने की पहली कोशिश की हो. मेरी नजर में एक और उदाहरण है जब दिल्ली की पटियाला हाउस अदालत ने वहां गिरफ्तार होकर पहुंची इंदिरा गांधी को कोर्ट से ही जमानत दे दी. उस दिन इंदिरा गांधी को जिन एसीएमएम ने अपने न्यायालय से तुरंत जमानत दी वह थे श्री आर दयाल. बाद में इंदिरा गांधी जब सत्ता में लौटीं तो उन्होंने आर दयाल को “टुकड़ा” डालकर उन्हें हाईकोर्ट का जज बना दिया. ”