मुफ्त में बेड के बदले ₹1 में सरकार ने दी जमीन, अपोलो में गरीबों को नहीं मिला ठिकाना, SC ने दिया ये आदेश

दिल्ली के एक बड़े अस्पताल अपोलो में गरीबों के इलाज का हक छीना जा रहा है. सरकार के आदेश के बावजूद लोगों को रिजर्व बेड नहीं मिल रहे हैं. यह घोटाला इतना बड़ा है कि अब कोर्ट ने इस पर कमिटी बनाने के लिए कहा है, जो यह जांच करेगा कि गरीबों का मुफ्त इलाज हो रहा है या जमीन निजी हित के लिए हड़पी गई है.;

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Edited By :  हेमा पंत
Updated On : 6 May 2025 1:34 PM IST

दिल्ली के एक बड़े अस्पताल अपोलो में गरीब मरीज़ों के लिए बिस्तर तो थे, लेकिन ज़्यादातर खाली ही रहे. यह अस्पताल उन खास निजी संस्थानों में से एक है जिसे सरकार ने सस्ती ज़मीन इस शर्त पर दी थी कि वह हर साल एक तय हिस्सा लगभग 10% बिस्तर आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) के मरीज़ों के लिए रखेगा. लेकिन इंडियन एक्सप्रेस की जांच बताती है कि असल में हुआ कुछ और.

साल 2009 में दिल्ली हाईकोर्ट ने एक सख़्त आदेश दिया था. कोर्ट ने कहा था कि अपोलो जैसे अस्पताल को कम से कम 200 बिस्तर आर्थिक रूप से कमजोर मरीज़ों के लिए रिज़र्व करने होंगे. ये शर्त उस समय रखी गई थी, जब अस्पताल को ज़मीन दी गई थी. इस शर्त पर कि वे इनडोर और आउटडोर मरीज़ों को मुफ्त इलाज देंगे. मगर 15 साल बीत गए और कोर्ट ने पाया कि इस समझौते की शर्तें ज़्यादातर कागज़ों तक ही सीमित रह गईं.

1 रुपये महीना जमीन का किराया

इस जमीन की कीमत सिर्फ़ 1 रुपये महीने है. सरकार ने अपोलो को ये ज़मीन इतनी सस्ती सिर्फ इसलिए दी थी कि अस्पताल ज़रूरतमंदों का भी उतना ही ध्यान रखे जितना अमीर मरीज़ों का, लीज़ एग्रीमेंट की साफ़ शर्त थी. 600 बिस्तरों में से कम से कम एक-तिहाई यानी 200 बिस्तर गरीब मरीजों के लिए मुफ़्त इलाज के लिए आरक्षित रहेंगे.

साल भर में गरीबों को मिले 1023 बेड

अगर हर महीने की बात करें, तो इन 200 बिस्तरों के लिए 6,000 बिस्तर-दिन (200 बिस्तर × 30 दिन) होना चाहिए था. मतलब हर दिन 200 गरीब मरीज अस्पताल में भर्ती हों या फिर कुछ कम हों लेकिन बिस्तर लगातार इस्तेमाल होते रहें. लेकिन असली तस्वीर कुछ और ही है. जांच में पता चला कि 12 साल में हर साल औसतन गरीब मरीज़ों के लिए इस्तेमाल हुए बिस्तर-दिन सिर्फ 1,023 रहे. यानी जितना वादा था. उसका सिर्फ एक छोटा सा हिस्सा ही पूरा हुआ. कुल मिलाकर बिस्तर अधिभोग दर सिर्फ 17.05% रही.

88% मरीज़ सिर्फ ओपीडी

12 साल के आंकड़े बताते हैं कि इस दौरान लगभग 2.97 लाख मरीज़ों को मुफ्त इलाज मिला. सुनने में संख्या बड़ी लगती है, लेकिन जब इसे करीब से देखा गया, तो पता चला कि इनमें से 88% मरीज़ सिर्फ ओपीडी (बाहरी मरीज) में आए थे. यानी दवाइयां या सलाह लेकर चले गए. जबकि सिर्फ 12% को ही अस्पताल में भर्ती कर असल इलाज मिला और बिस्तर? हर साल औसतन सिर्फ 2,997 मरीज़ों को ही वो नसीब हुए. बाकी के लिए अस्पताल के गेट तक आना तो हुआ, लेकिन भीतर दाख़िला नहीं मिला.

उदाहरण से समझें घोटाला

वित्त वर्ष 2023-24 की बात है. अपोलो अस्पताल, दिल्ली में हर महीने औसतन 361 ऐसे मरीज़ भर्ती किए जाते थे, जो आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) से आते हैं. ये मरीज़ अस्पताल में लगभग 3.41 दिन रुकते थे. यानी अगर आप हर मरीज़ के रुकने के दिनों को जोड़ें, तो हर महीने करीब 1,231 बिस्तर-दिन (361 मरीज़ × 3.41 दिन) इस्तेमाल होते थे.

अब अस्पताल में हर महीने कुल 6,000 बिस्तर-दिन उपलब्ध होते हैं (अगर मान लें कि 200 बिस्तर हर दिन काम में लाए जा सकते हैं, तो 200 × 30 दिन = 6,000 बिस्तर-दिन). जब 1,231 को 6,000 से बांटा गया, तो पता चला कि EWS मरीज़ों के लिए बिस्तरों का उपयोग सिर्फ 20.5% था.

सरकार ने दिया ये आदेश

सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार, केंद्र और दिल्ली सरकार को एक संयुक्त निरीक्षण दल गठित करना होगा, जो यह जांच करेगा कि गरीबों का मुफ्त इलाज हो रहा है या जमीन निजी हित के लिए हड़पी गई है. रिपोर्ट चार सप्ताह में सुप्रीम कोर्ट को सौंपनी होगी.

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