कबूतरों की गुटूर-गूं पर विवाद! बीएमसी की सख्ती से तिलमिलाया जैन समाज, मुंबई में बैन के बाद बढ़ा टकराव

मुंबई में बीएमसी ने दादर कबूतरखाना पर तिरपाल डालकर कबूतरों को दाना डालने पर रोक लगा दी है. कोर्ट के आदेश और फेफड़ों की बीमारी के खतरे को देखते हुए यह फैसला लिया गया. लेकिन जैन समुदाय इसे धार्मिक भावनाओं पर हमला मान रहा है. मंत्री मंगल प्रभात लोढ़ा ने समाधान की मांग की है. विवाद आस्था और स्वास्थ्य के बीच संतुलन की चुनौती बन गया है.;

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Edited By :  नवनीत कुमार
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हर सुबह जब नीला आसमान कबूतरों की गुटूर-गूं से गूंजता है, तो यह दृश्य हमें शांति, सादगी और प्रकृति से जुड़ाव का एहसास कराता है. सदियों से कबूतर सिर्फ एक पक्षी नहीं, बल्कि संस्कृति, प्रेम, और संचार के प्रतीक रहे हैं. चाहे शाही संदेशवाहक हों या फिल्मी प्रेमियों के दूत, इनकी मौजूदगी हमेशा कोमल भावनाओं से जुड़ी रही है. लेकिन आधुनिक शहरों में इनकी बढ़ती संख्या अब एक नया संकट लेकर आ रही है, जो है- फेफड़ों से जुड़ी गंभीर बीमारियां.

मुंबई महानगरपालिका (बीएमसी) ने दादर स्थित ऐतिहासिक कबूतरखाना पर तिरपाल डाल दिया है और वहां कबूतरों को दाना डालने पर प्रतिबंध लगा दिया है. यह निर्णय महाराष्ट्र सरकार के निर्देश और बॉम्बे हाई कोर्ट के आदेशों के अनुपालन में लिया गया. सार्वजनिक स्थलों पर कबूतरों को दाना डालना अब कानूनी अपराध माना जा रहा है. बीएमसी ने चेतावनी बोर्ड लगाए हैं और निगरानी भी शुरू कर दी है.

पहला केस दर्ज

माहिम में पुलिस ने एलजी रोड पर एक व्यक्ति के खिलाफ एफआईआर दर्ज की है जो अपनी कार से बाहर निकलकर कबूतरों को दाना डाल रहा था. इस मामले में आरोपी की पहचान नहीं हो सकी है, लेकिन यह मुंबई में इस तरह का पहला कानूनी मामला है. इससे साफ संकेत मिलते हैं कि अब प्रशासन इस मुद्दे को हल्के में नहीं ले रहा और इसे एक सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट मान रहा है.

जैन समुदाय का विरोध

इस फैसले के बाद सबसे मुखर विरोध जैन समुदाय की ओर से देखने को मिला है. जैन धर्म में कबूतरों को दाना डालना 'जीव दया' का हिस्सा माना जाता है. दादर का यह कबूतरखाना भी जैन मंदिर द्वारा स्थापित है और लंबे समय से यह धार्मिक गतिविधियों का केंद्र रहा है. तिरपाल लगाकर दाने पर रोक लगाने को समुदाय ने धार्मिक भावना पर हमला माना है और सड़क पर उतरकर इसका विरोध शुरू कर दिया है.

मंत्री का हस्तक्षेप

महाराष्ट्र सरकार के मंत्री मंगल प्रभात लोढ़ा ने बीएमसी आयुक्त को पत्र लिखकर स्थिति की गंभीरता को समझने की अपील की है. उन्होंने सुझाव दिया है कि यदि दादर जैसे सार्वजनिक स्थलों पर दाना डालना खतरनाक है, तो बीकेसी, आरे कॉलोनी और संजय गांधी नेशनल पार्क जैसे खुले स्थानों को वैकल्पिक रूप से विकसित किया जाए जहां सुरक्षित तरीके से कबूतरों को दाना डाला जा सके. मंत्री ने संतों और पशु प्रेमियों की भावनाओं को सम्मान देने की बात भी दोहराई है.

कबूतरों की बीट और फेफड़ों की बीमारी

विशेषज्ञ बताते हैं कि कबूतरों की बीट (मल) में ऐसे फंगल जीवाणु होते हैं जो मनुष्यों में हाइपरसेंसिटिविटी न्यूमोनाइटिस जैसी बीमारी पैदा कर सकते हैं. यह बीमारी सांस लेने में तकलीफ, सीने में दर्द, और लंबे समय तक इलाज का कारण बन सकती है. खासकर बुजुर्ग, अस्थमा के मरीज और छोटे बच्चों के लिए यह और भी घातक है. डॉक्टर सलाह देते हैं कि जिन घरों के आसपास कबूतरों की संख्या अधिक है, वहां नियमित सफाई और सतर्कता बरती जाए.

क्या धार्मिक परंपरा को नया रास्ता मिल सकता है?

पारंपरिक मान्यताओं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. जैन धर्म के अलावा कई हिंदू मान्यताओं में भी अमावस्या पर कबूतरों को दाना डालना पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए शुभ माना जाता है. लेकिन बदलती परिस्थितियों में इन धार्मिक प्रथाओं को विज्ञान और सार्वजनिक स्वास्थ्य के अनुरूप ढालना जरूरी है. क्या अब समय आ गया है कि धार्मिक आस्थाओं को वैज्ञानिक चेतना के साथ जोड़ा जाए?

समाधान की जरूरत

मुंबई का मामला सिर्फ एक शहर का नहीं बल्कि पूरे देश के लिए एक मॉडल केस बन सकता है. प्रशासन, धार्मिक समुदाय और वैज्ञानिक समुदाय के बीच सहयोग से ऐसे समाधान निकल सकते हैं जो न आस्था को ठेस पहुंचाएं और न स्वास्थ्य को खतरे में डालें. बीएमसी, कोर्ट और धार्मिक संस्थाएं मिलकर यदि एक समग्र नीति बनाएं तो यह समस्या टकराव का नहीं, समाधान का उदाहरण बन सकती है.

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