अर्जुन रेड्डी, कबीर सिंह, एनिमल....और अब Tere Ishq Mein, कब रुकेगा प्यार के नाम पर ये टॉक्सिक ट्रेंड?
धनुष-कृति सैनन की 'तेरे इश्क में' ने थिएटर में 100 करोड़ पार कर लिए, लेकिन जो फिल्म शुरू में टॉक्सिक मर्दानगी को तोड़ने का वादा कर रही थी, वही अंत में कुछ और ही देखने को मिला. फिल्म कहीं न कहीं 'एनिमल' और 'कबीर सिंह' की याद दिला सकती है. साथ ही फिल्म की कहानी सवाल उठाती है कैसे क्या यही मनोविज्ञान है?;
हाल ही में थिएटर में धनुष और कृति सेनन (Kriti Sanon) स्टारर 'तेरे इश्क़ में' (Tere Ishk Mein) रिलीज हुई है. फिल्म 100 करोड़ का आंकड़ा पार कर चुकी है. जहां फिल्म एक लव स्टोरी तो दिखाने में कामयाब रही लेकिन कहीं न कहीं इस फिल्म ने भी कुछ दर्शकों को 'अर्जुन रेड्डी', 'कबीर सिंह' और 'एनिमल' जैसा ही टेस्ट देने की पूरी कोशिश की है जो आजकल की फिल्मों में आम बात बन चुकी है. ऐसे में लगा था कि आनंद एल. राय की फिल्म 'तेरे इश्क में' कुछ अलग करने की कोशिश कर रही है. हीरो को टॉक्सिक दिखाने की बजाय उसकी कमजोरी दिखाई, उसका गुस्सा बचपन के सदमे से जोड़ा मां को जलते हुए देखना और इलाज के पैसे न होने का दर्द. लगा कि शायद फिल्म ये कहना चाहती है कि ऐसा गुस्सा गलत है और इसे ठीक किया जा सकता है. लेकिन जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ी, सारी अच्छी शुरुआत बेकार हो गई. इंडियन एक्सप्रेस की रिव्यू से इंस्पायर्ड इस आर्टिकल को लिखने का मकसद है कि 'टॉक्सिक लीड कैरक्टर' को अब रियल हीरो मान लेना आम बात बनकर रह गई है?.
हीरो का नाम है शंकर (धनुष). कॉलेज में चुनाव के दिन ही वो किसी को बुरी तरह पीटता दिखता है. हीरोइन मुक्ति (कृति सैनन) पीएचडी कर रही है और मानती है कि गुस्से को पूरी तरह खत्म किया जा सकता है. वो शंकर को अपना 'एक्सपेरिमेंट' का केस बना लेती है. अब यहीं से सारी दिक्कत शुरू हो जाती है. मुक्ति खुद को बहुत समझदार दिखाना चाहती है, लेकिन करती कुछ और ही है. शंकर को सबके सामने थप्पड़ मारती है. पुलिस उसे पकड़ कर ले जा रही होती है तो शंकर डरावनी हंसी हंसते हुए कहता है, 'मेरा तो रोज का है, पर खूबसूरत लड़की रोज थप्पड़ नहीं मारती.' और पुलिस वाला भी हंस देता है! फिर शंकर उसका हाथ पकड़कर कहता है, 'फिर मार ना' और मुक्ति… मुस्कुरा देती है! यानी फिल्म कह रही है कि मारपीट और बदतमीजी को भी फ्लर्ट समझो.
पीएचडी गर्ल की बचकानी हरकत
फिर मुक्ति शंकर को अपने रिसर्च में शामिल कर लेती है. शंकर साफ कहता है, 'मुझे तुमसे प्यार हो जाएगा.' मुक्ति का जवाब में कहती है, 'तुम प्यार समझकर कर लेना, मैं तो काम समझकर कर लूंगी.' एक पीएचडी वाली लड़की ऐसी बचकानी बात करे, ये विश्वास करना मुश्किल है. फिर शुरू होता है 'मैं उसे ठीक कर दूंगी' वाला ड्रामा. मुक्ति बिना किसी सही थेरेपी के बस शंकर की फीलिंग्स रिकॉर्ड करती रहती है और दो प्रोफेसर के सामने ले जाकर कहती है देखो, गुस्सा ठीक हो गया तभी शंकर बीच में ही भागकर बस स्टैंड पर दो लोगों को पीटने लगता है. थीसिस फेल लेकिन मुक्ति मानने को तैयार नहीं.
क्या यही मनोविज्ञान है?
उसके बाद जो सीन आता है, वो देखकर सच में गुस्सा आता है. मुक्ति बस ड्राइवर-कंडक्टर से कहती है, 'मेरे एक्सपेरिमेंट के लिए इसे थप्पड़ मार दो. शंकर कहता है, 'थप्पड़ नहीं, बदले में कुछ और चाहिए और मुक्ति उसे होटल ले जाती है. यानी रिसर्च के नाम पर औरत खुद अपनी इज्जत दांव पर लगा दे क्या यही मनोविज्ञान है?. फिल्म आगे और बिगड़ती जाती है शंकर झूठ बोलकर दिखाता है कि वो ठीक हो गया, सिर्फ मुक्ति की थीसिस बच जाए. मुक्ति मान भी लेती है दोनों का रिश्ता टॉक्सिक होता जाता है, फिर भी मुक्ति उसे छोड़ती नहीं. आखिर में शंकर का बाप मर जाता है, शंकर मुक्ति को श्राप देता है और गायब हो जाता है.
ठीक-ठाक एक्टिंग बकवास कहानी
मुक्ति अपनी शादी तोड़ देती है, शराब पीने लगती है, और उसी लड़के से शादी कर लेती है जिसे पहले छोड़ चुकी थी क्योंकि पापा ने कहा और शंकर के श्राप के डर से! आखिर में शंकर एयरफोर्स पायलट बन जाता है और वॉर में मर जाता है. ऐसी फिल्मों से समझा आता है कि ये 'एनिमल' ऐरा है. फिल्म टॉक्सिक मर्दानगी को खत्म करने की बजाय उसकी पूजा करती है. एक पढ़ी-लिखी, पीएचडी वाली लड़की को पूरी तरह बेवकूफ और कमजोर दिखाया गया. उसकी सारी समझदारी बस एक डायलॉग तक सिमट गई. एक्टिंग सबकी अच्छी है, धनुष, कृति सेनन और खासकर प्रकाश राज ने दिल जीत लिया. मगर कहानी इतनी बकवास है कि अच्छी एक्टिंग भी बेकार लगती है. शुरू में लगा था कि शायद ये फिल्म 'एनिमल' जैसे ट्रेंड को तोड़ेगी. लेकिन अफसोस, ये उसी टॉक्सिक रास्ते पर और आगे निकल गई.
शराब, सेक्स सब कुछ बेलगाम... कबीर सिंह
लेकिन 'एनिमल' से पहले हम 'कबीर सिंह' को कैसे भूल सकते है. एक ऐसी फिल्म है जो शुरू से अंत तक एक गुस्सैल, अल्कोहलिक, हिंसक और खुदगर्ज़ मर्द की पूजा करती है और उसे 'प्यार में पागल' का टैग देकर रोमांटिक बना देती है. ये फिल्म न सिर्फ खतरनाक है, बल्कि समाज में पहले से मौजूद टॉक्सिक सोच को और मजबूत करती है. हीरो का कैरक्टर पूरी तरह टॉक्सिक है. कबीर सिंह (शाहिद कपूर) एक मेडिकल स्टूडेंट है जो कॉलेज की जूनियर लड़की (प्रीति) को देखते ही चिल्लाता है- ये मेरी है! जबरदस्ती उसका पीछा करता है, धमकाता है, किस करता है. गुस्सा आए तो किसी को भी मारता-पीटता है (जूनियर को थप्पड़, दोस्त को मुक्का, यहां तक कि हॉस्टल के लड़कों को बंदूक दिखाता है). ड्रग्स, शराब, सेक्स सब कुछ बेलगाम. ये सब फिल्म 'इंटेंस प्यार' के नाम पर जायज़ ठहराती है. औरत की कोई आवाज़ नहीं, कोई सहमति नहीं. प्रीति (कियारा आडवाणी) का किरदार एकदम खाली है. वो न 'हां'कहती है, न 'ना' बस डर के मारे चुप रहती है. हालाँकि कबीर सिंह साउथ हिट मूवी 'अर्जुन रेड्डी' की रीमेक है. कबीर सिंह कोई लव स्टोरी नहीं है. ये एक मानसिक रूप से बीमार, कंट्रोलिंग और हिंसक आदमी की जीत की कहानी है जिसे 'प्यार' का नाम देकर ग्लोरिफाई किया गया.
अल्फा मेल को पूजती 'एनिमल'
वहीं 'एनिमल' भी वो फिल्म जो टॉक्सिक मर्दानगी को नंगा करके उसके सामने घुटने टेक देती है. 'एनिमल' देखते वक्त तीन घंटे तक आपको लगता रहेगा कि आप किसी क्राइम-ड्रामा या बदले की फिल्म देख रहे हैं, लेकिन असल में आप एक टॉक्सिक बाप-बेटे के रिश्ते और उससे भी टॉक्सिक मर्दानगी की पूजा देख रहे हैं. रणबीर कपूर ने जो किरदार निभाया है, वो पिछले दस साल की सबसे खतरनाक मिसाल है कि बॉलीवुड अब भी 'अल्फ़ा मेल' को भगवान की तरह पेश कर सकता है. आसान भाषा में 'अल्फ़ा मेल' का मतलब समझे तो, एक ऐसा व्यक्ति जो कॉन्फिडेंस से भरपूर डोमिनेटेड जो हर सिचुएशन को अपने कंट्रोल में रखता है. रणवीर सिंह उर्फ़ रणबीर कपूर अपने पापा (अनिल कपूर) से बेइंतेहा प्यार करता है। पापा उससे उतना प्यार नहीं करते. गुस्सा आए तो रणवीर मशीनगन उठा लेता है, पूरा खानदान काट देता है, और फिर भी पापा का एक 'गुड जॉब, बेटा' सुनने के लिए तरसता है. प्यार में भी वो यही करता है जो चाहे जबरदस्ती ले ले, मार-पीट करे, और ये सब 'इंटेंस लव' कहलाए.