43 साल बाद न्याय! 1982 में हुई थी कुसुमा देवी की हत्या, अब पाए गए दोषी; मिली इतने साल की सजा
हाईकोर्ट ने पाया कि निचली अदालत का फैसला पूरी तरह त्रुटिपूर्ण था. गवाहों की गवाही को केवल एक टॉर्च जब्त न करने की वजह से खारिज कर देना न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ था. अदालत ने कहा कि गवाह पूरी तरह विश्वसनीय थे और उनके बयानों को हल्के कारणों से नकारा नहीं जा सकता था.

उत्तर प्रदेश के जालौन जिले से एक ऐसा मामला सामने आया है जिसमें एक दिवगंत विवाहित महिला को 43 साल बाद न्याय मिला. सुनकर किसी को भी हैरानी हो सकती है आखिर न्याय मिलने में कोई एक दो साल नहीं बल्कि 43 साल लगे. लेकिन यह पुराना केस इस बात का उदाहरण है कि चाहे कितना भी समय लग जाए, कानून से अपराधी बच नहीं सकता. पीड़िता कुसुमा देवी को भले ही बहुत देर से न्याय मिला, लेकिन यह फैसला समाज को एक बड़ा संदेश देता है.
जालौन जिले के एक बेहद चर्चित हत्या मामले पर आखिरकार 43 साल बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बड़ा और ऐतिहासिक फैसला सुनाया है. यह मामला साल 1982 का है, जब एक विवाहिता महिला कुसुमा देवी की निर्मम हत्या कर दी गई थी. इस घटना ने उस समय पूरे इलाके को हिला दिया था, लेकिन न्याय मिलने में पूरे चार दशक से भी ज्यादा का समय लग गया.
43 साल पहले हुई हत्या
6 अगस्त 1982 को जालौन थाना क्षेत्र के अंतर्गत रहने वाली कुसुमा देवी की हत्या कर दी गई. आरोप था कि हत्या उसके पति अवधेश कुमार और ससुराल वालों ने मिलकर की. हत्या की वजह भी हैरान करने वाली थी. कुसुमा देवी को शक था कि उनके पति का रिश्ते में छोटे भाई की पत्नी के साथ अवैध संबंध है. इसी शक ने घर के भीतर तनाव पैदा किया और देखते ही देखते यह शक एक खतरनाक रूप में बदल गया और अंत में कुसुमा देवी की बेरहमी से हत्या कर दी गई.
निचली अदालत का फैसला
इस मामले की जांच पुलिस ने की और चार्जशीट दाखिल करते हुए केस को अदालत तक पहुंचाया. नवंबर 1984 में जालौन की अतिरिक्त सत्र अदालत में फैसला आया. लेकिन सबूतों की कमी का हवाला देते हुए अदालत ने सभी आरोपितों को बरी कर दिया. उस समय अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष अपने गवाहों की गवाही को मज़बूत ढंग से पेश नहीं कर पाया. खासतौर पर गवाहों ने जो कहा था कि उन्होंने घटना टॉर्च की रोशनी में देखी, उस टॉर्च को पुलिस ने जब्त नहीं किया. इसी आधार पर गवाही को कमजोर मानते हुए अदालत ने आरोपितों को बरी कर दिया।
हाईकोर्ट में अपील
अभियोजन पक्ष ने इस फैसले को चुनौती देते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपील दायर की. मामला धीरे-धीरे खिंचता गया और 43 साल तक लंबी कानूनी लड़ाई चलती रही. अंत में न्यायमूर्ति राजीव गुप्ता और न्यायमूर्ति हरवीर सिंह की खंडपीठ ने इस केस की गहराई से सुनवाई की.
हाईकोर्ट का बड़ा फैसला
हाईकोर्ट ने पाया कि निचली अदालत का फैसला पूरी तरह त्रुटिपूर्ण था. गवाहों की गवाही को केवल एक टॉर्च जब्त न करने की वजह से खारिज कर देना न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ था. अदालत ने कहा कि गवाह पूरी तरह विश्वसनीय थे और उनके बयानों को हल्के कारणों से नकारा नहीं जा सकता था. कोर्ट ने यह भी कहा कि यह हत्या केवल एक पारिवारिक विवाद या शक का नतीजा नहीं थी, बल्कि यह अंधविश्वास और अवैज्ञानिक सोच का परिणाम थी. हत्या के बाद आरोपितों ने बिना पुलिस को सूचना दिए, बिना परिवार वालों को बुलाए, तुरंत कुसुमा देवी का शव जला दिया. यह जल्दबाजी उनके अपराधी होने की ओर इशारा करती है और उनके असामान्य आचरण को दर्शाती है.
आरोपियों को मिली इतने साल की सजा
हाईकोर्ट ने मुख्य आरोपी पति अवधेश कुमार और सह-आरोपी माता प्रसाद को दोषी करार दिया. दोनों को आजीवन कारावास (लाइफ इम्प्रिज़नमेंट) की सजा सुनाई गई. इसके साथ ही उन्हें 20 हजार रुपए का जुर्माना भी भरना होगा. इसके अलावा, सबूत मिटाने की कोशिश (धारा 201 आईपीसी) के तहत दोनों को तीन साल की कैद और 5 हजार रुपए का जुर्माना भी सुनाया गया. हालांकि अदालत ने साफ किया कि दोनों सजाएं साथ-साथ चलेंगी. साथ ही, हाईकोर्ट ने आदेश दिया कि दोनों दोषी दो हफ्ते के भीतर संबंधित अधिकारियों के सामने आत्मसमर्पण करें.