इंटरनेट, सोशल मीडिया और टीवी छीन रही बच्चों की मासूमियत, IQ को लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने क्या कहा?
कोर्ट ने इस मामले में किशोर की मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन रिपोर्ट का खासतौर पर जिक्र किया. इस रिपोर्ट में कहा गया था कि उस 16 साल के किशोर का IQ सिर्फ 66 है, जो सामान्य से काफी कम है.

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने शुक्रवार को एक बेहद अहम टिप्पणी करते हुए बच्चों पर तकनीक और सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव पर चिंता जताई. कोर्ट ने साफ शब्दों में कहा कि आज के दौर में टीवी, इंटरनेट और सोशल मीडिया जैसे माध्यम बहुत छोटी उम्र में ही बच्चों की मासूमियत को छीन रहे हैं.कोर्ट का कहना था कि ये माध्यम बच्चों के मानसिक और भावनात्मक विकास को प्रभावित कर रहे हैं, और उनकी सोचने-समझने की क्षमता पर नकारात्मक असर डाल रहे हैं.
कोर्ट ने यह भी माना कि इंटरनेट के जरिये की गतिविधियों को नियंत्रित करना सरकार के लिए भी एक बड़ी चुनौती बन गया है, क्योंकि तकनीक की प्रकृति ही ऐसी है कि वह तेज़ी से बदलती है और हर किसी के हाथ में पहुंच चुकी है. यह टिप्पणी हाईकोर्ट की सिंगल बेंच, जिसमें जस्टिस सिद्धार्थ मौजूद थे, उन्होंने एक क्रिमिनल रिवीजन अर्जी पर सुनवाई के दौरान दी, यह अर्जी एक 16 साल के किशोर की ओर से दायर की गई थी.
क्या था मामला
मामला यह था कि एक नाबालिग लड़की (जिसकी उम्र 14 साल थी) के साथ शारीरिक संबंध बनाने के आरोप में किशोर को गिरफ्तार किया गया था. किशोर न्याय बोर्ड और पॉक्सो कोर्ट (जिला कौशांबी) ने इस पर आदेश दिया था कि किशोर पर एक वयस्क की तरह मुकदमा चलाया जाए. लेकिन हाईकोर्ट ने इस आदेश को चुनौती देने वाली अर्जी पर विचार करते हुए साफ कहा कि उस किशोर को वयस्क नहीं माना जा सकता है, और उसे किशोर के रूप में ही देखा जाए. कोर्ट ने कहा कि उपलब्ध रिकॉर्ड में ऐसा कोई सबूत नहीं है जिससे यह लगे कि वह किशोर कोई ‘शिकारी’ मानसिकता वाला है या उसमें बिना उकसावे के बार-बार अपराध करने की प्रवृत्ति है. केवल इसलिए कि उस पर एक जघन्य अपराध का आरोप है, उसे वयस्क के रूप में मुकदमा झेलने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता.
6 साल के बच्चे बराबर किशोर का दिमाग
कोर्ट ने इस मामले में किशोर की मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन रिपोर्ट का खासतौर पर जिक्र किया. इस रिपोर्ट में कहा गया था कि उस 16 साल के किशोर का IQ सिर्फ 66 है, जो सामान्य से काफी कम है. इसके अलावा, 'सेंगुइन फॉर्म बोर्ड टेस्ट' नाम के एक टेस्ट के मुताबिक, उस किशोर की मानसिक आयु केवल 6 साल के बराबर आंकी गई. इसका मतलब है कि भले ही उसकी असली उम्र 16 साल से ऊपर थी, लेकिन वह मानसिक रूप से एक छोटे बच्चे के बराबर था. कोर्ट ने यह भी माना कि जब उसने लड़की के साथ शारीरिक संबंध बनाए, तब लड़की की उम्र 14 साल थी. लेकिन पीड़िता को गर्भपात की दवा देने का निर्णय उस किशोर का खुद का नहीं था, बल्कि इसके पीछे और भी लोग शामिल थे.
किशोर के तहत चलाए मुकदमा
हाईकोर्ट ने जुवेनाइल जस्टिस एक्ट (किशोर न्याय अधिनियम) की धारा 15 का हवाला देते हुए कहा कि किसी भी किशोर को वयस्क मानने से पहले चार महत्वपूर्ण मापदंडों पर जांच की जानी चाहिए, उसकी मानसिक क्षमता, जघन्य अपराध करने की शारीरिक क्षमता, अपराध के नतीजों को समझने की समझ और अपराध करने की परिस्थितियाँ. इन सभी बातों की सावधानीपूर्वक समीक्षा के बाद कोर्ट ने नतीजा निकाला कि उस किशोर को वयस्क की तरह नहीं, बल्कि एक किशोर की तरह ही मुकदमे का सामना करने देना चाहिए.