विभाजन के समय अलग हुआ था परिवार, दादा की आखिरी इच्छा को पूरा करने पाकिस्तान पहुंची पंजाब की बेटी
भारत और पाकिस्तान के बीच हुए विभाजन की लड़ाई में कई परिवार तबाह हुए. इस बीच पंजाब में रहने वाली किरण ने अपने दादा की आखिरी इच्छा को पूरा करने के लिए अपने गांव पाकिस्तान पहुंची. कई सालों के बाद अपने परिवार से मिलने पर उन्हें कैसा अनुभव हुआ. कैसा महसूस हुआ. इसकी जानकारी उन्होंने दी.

भारत और पाकिस्तान के बीच हुए विभाजन की लड़ाई में कई परिवार तबाह हुए. कई लोगों ने अपनों से दूरी को सहा है, और एक नई जगह और नए देश में बसकर खुदको बसाया है. आज भी कुछ लोग परिवार से अपनों से दूरी को बर्दाश्त कर रहे हैं. इसी कड़ी में पाकिस्तान की रहने वाली 52 साल की महिला करमजीत कौर घुमन उर्फ किरण विभाजन के उस दौर की कहानी को साझा किया.
किरण ने बताया कि विभाजन के समय में उनका पिरवार किस तरह अलग हो गया था. लेकिन जब कई सालों के बाद उन्होंने वापिस अपने गांव पाकिस्तान में कदम रखा तो उन्हें कैसा महसूस हुआ. उस अनुभव को उन्होंने साझा किया है. उन्होंने बताया कि पाकिस्तान वह अपने दादा की इच्छा को पूरा करने पहुंची थी.
विभाजन के समय अलग हुआ था परिवार
किरण जो पेशे से थेरेपिस्ट हैं. उन्होंने बताया कि अटारी सीमा के रास्ते से होते हुए पाकिस्तान पहुंची. किरण ने बताया कि उनके दादा बहादुर सिंह और उनके भाई वधावा सिंह बंटवारे के दौरान भारत चले गए थे. लेकिन उनके दूसरे भाई उजागर सिंह वहीं रह गए थे. कई साल बीते उन्हें पता चला कि उन्होंने इस्लाम धर्म को अपना लिया है. वधावा सिंह अब गुलाम मोहम्मद बन चुके थे. लेकिन इस बीच दोनों परिवारों की बातें बंद नहीं हुईं, उन्होंने बताया कि पत्रों के जरिए दोनों के बीच बातें जारी रहती थी. किरण ने उन्हें अपनी शादी में शामिल होने का निमंत्रण भेजा था. लेकिन भारत-पाक के खारब रिश्तों के कारण कोई उनकी शादी में शामिल नहीं हो पाया. किरण ने बताया कि भले ही वह शादी में शामिल न हो सके. लेकिन शादी का कार्ड आज भी संभाले रखा है.
वहीं इस दूरी को कम करने का किरण ने फैसला तो ले लिया. लेकिन मन में एक डर था. डर इस बात का कि आखिर कैसा बर्ताव होगा. लेकिन जैसा सोचा उससे कई अच्छा उनका स्वागत हुआ. उन्होंने बताया कि जब पहली बार शादी के बाद बेटी अपने मायके पहुंचती है ठीक वैसा ही उनका स्वागत हुआ.
दादा जी ने जो बताया उसे संभाले रखा था
वहीं 'द इंडियन एक्स्प्रेस' की रिपोर्ट के मुताबिक जब किरण सियालकोट अपने गांव पहुंची उन्होंने बताया कि उजार सिंह के बेटे यानी उनके चाचा से उनकी मुलाकात हुई. वह उनसे गले लगे और खूब रोए. अपने गांव में उन्हें घुमाया उन सभी यादों को समेट कर अपने पास रखा जिसे कभी किरण के दादा ने उनसे बात की थी.उनके परिवार के खेतों में पीपल का पेड़, पुरानी चक्की (पारंपरिक चक्की), वे पत्र जो उन्होंने पाकिस्तान में अपने भाई को लिखे थे. उन सभी को उन्होंने अपने पास संभाले रखा.
दादा के सपने को करूंगी पूरा
उन्होंने बताया कि जब वह छोटी थी लेकिन उन्हें यह याद है कि उनके दादा जी सो रहे थे उन्हें अपने भाई की याद आ रही थी. वह उनसे मिलना चाहते थे. उसी समय से किरण ने यह तय किया कि अपने दादा के इस सपने को वह पूरा करेंगी और एक दिन पाकिस्तान जाकर उनसे मुलाकात करेंगी. क्योंकी उनके दादा के भाई ने इस्लाम धर्म अपना लिया था, तो उन्हें लिखे हुए पत्र का जवाब वह ऊर्दू से भेजते थे.
अब क्योंकी किरण पंजाबी में उन्हें पत्र लिखती थी. जाहिर है पंजाबी ही जानती थी. लेकिन वह ऊर्दू नहीं जानती थी. इस पत्र को पढ़वाने के लिए वह अपने स्कूल के चपरासी से अनुरोध करती थी इसे उनके लिए पढ़े और बताए कि आखिर उसमें क्या लिखा है. यह सिलसिला काफी समय तक चला. लेकिन जब उनके दादा और उनके भाई उजागर सिंह का निधन हुआ तो पत्र लिखना दोनों ओर से बंद हो गया. इसके बाद साल 1997 में वह UK चली गईं.
ससुराल ने किया था इनकार
हालांकि दादा के चले जाने के बाद किरण ने पत्र लिखने का सिलसिला जारी रखा. ससुराल वाले भारत-पाक के खराब रिश्तों से घबराते थे और अकसर उसे पत्र लिखने से रोकते थे. लेकिन वह रुकी नहीं और पत्र भेजती रहीं. कुछ समय के बाद किरण को उसके चाचा की ओर से दोबारा जवाब मिलना शुरू हुआ. ऐसे ही वह लगातार कॉन्टैक्ट में रहे. लेकिन यह कॉन्टैक्ट दोनों को मिलवाने में काम न आ सका क्योंकी उस समय वीजा को लेकर सख्त नियम थे. जिसने दो परिवारों को मिलने से रोका.
खेत की मिट्टी लेकर आउंगी
साल 2015 में किरण ने अपने पिता को खो दिया. लेकिन इस दौरान उन्होंने अपने चाचा को पाकिस्तान जाने के बारे में बताया. यह सुनते ही उनके चाचा की आखों में आंसू आ गए और उन्होंने कहा कि उन्हें भी अपने साथ ले चले. किरण ने बताया कि यह कहते ही चाचा की आंखों में आंसू आ गए. उन्हें ले जाना संभव नहीं था क्योंकी वह व्हीलचेयर पर थे. लेकिन किरण ने उनसे पंजाबी में कहा कि मैं आपके लिए अपने गांव की मिट्टी लेकर आउंगी. जिससे आपके कलेजे को ठंडक पड़ जाएगी. उन्होंने कहा कि एक बात का अफसोस उन्हें आज भी है कि उनके दादा अपने भाई को देखे बिना ही चल बसे. उन्होंने कहा कि साल 1947 में मेरे परिवार को जो नुकसान हुआ. जो दर्द उन्होंने सहा उसकी भरपाई कोई नहीं कर सकता. यह दर्द केवल वही महसूस कर सकता है जिसने इसे झेला है.