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नहीं रहे भारत-पाक बंटवारे के आखिरी गवाह! दंगाइयों से मुस्लिम ने बचाई थी राम कृष्ण सिंह की जान, अब 102 साल की उम्र में हुआ निधन

राम कृष्ण जिनकी विभाजन के दौरान एक मुस्लिम शख्स ने जान बचाई थी. अब वह 102 साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कह चुके हैं. उनके पिता को घर में ही लोगों ने मार डाला था, जिसके बाद उन्हें दूसरे गांव में छुपना पड़ा, ताकि वह अपने परिवार की जान बचा सकें.

नहीं रहे भारत-पाक बंटवारे के आखिरी गवाह! दंगाइयों से मुस्लिम ने बचाई थी राम कृष्ण सिंह की जान, अब 102 साल की उम्र में हुआ निधन
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( Image Source:  x-AwaraMasiiha )
हेमा पंत
Edited By: हेमा पंत

Updated on: 4 July 2025 3:52 PM IST

भारत-पाक विभाजन का दर्द आज भी हमारी रूहों में गहरा तकता है. उस समय जब देश दो हिस्सों में बंट रहा था, एक ऐसा भयानक दौर था जिसमें सैकड़ों परिवार तबाह हो गए, हजारों मासूमों की जानें छीन ली गईं और अनगिनत रिश्ते जख्मों से भर गए. हर घर में आंसुओं की नदी बह रही थी, हर दिल में खोने का गम था. नफरत की इस आग ने इंसानियत की बंदिशें तोड़ दीं, लेकिन उसके बीच कहीं कहीं उम्मीद की किरणें भी चमकीं, कुछ ऐसे हौंसले और कुछ ऐसे लोग जिन्होंने अपने प्यार और साहस से इस भयंकर अंधकार में रोशनी फैलाई.

ये कहानियां हमें याद दिलाती हैं कि दर्द के बीच भी इंसानियत मरती नहीं, वह जिंदा रहती है. इस विभाजन का दर्द राम कृष्ण सिंह ने भी सहा था, जो पंजाब के पटियाला के धैंथल गांव से थे मंगलवार को 102 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया, लेकिन जब इस नफरत की आग में लोग एक-दूसरे के जान के दुश्मन बने थे, तब एक मुस्लिम शख्स ने उनकी जान बचाई थी.

बचपन की खुशियों में छिपा था आने वाला तूफान

अगस्त 1947 का महीना था, जब भारत और पाकिस्तान के बीच जन्मे नए राष्ट्रों ने एक-दूसरे से अपना रास्ता अलग कर लिया. उस समय राम कृष्ण लगभग 24 साल के थे. उनका गांव जो पहले बच्चों के खेलने, परिवारों के साथियों और मेलजोल की मिसाल था, जो अचानक नफरत की आग में जल उठा. एक इंटरव्यू में राम कृष्ण ने बताया था कि 'हमारे गांव में पहले मुसलमान, सिख और हिंदू मिल-जुलकर रहते थे. बच्चे एक-दूसरे के घरों में खेलते थे, लेकिन एक दिन अचानक सब बदल गया.'

पिता की हत्या और टूटती दुनिया

राम कृष्ण के पिता जियोना सिंह एक बढ़ई और बैलगाड़ी बनाने वाले थे. इस विभाजन के दौरान वह अपने पैतृक घर को छोड़ने से इनकार कर बैठे. उनकी यही हिम्मत उन पर भारी पड़ी. एक भीड़ ने उन्हें उनके ही घर में मार डाला. उस दिन राम कृष्ण के दिल का एक हिस्सा हमेशा के लिए टूट गया. परिवार को पास के तुल्लेवाल गांव में छिपना पड़ा, लेकिन दर्द के धुंधलाए दिन खत्म नहीं हुए थे.

मुस्लिम शख्श ने बचाई जान

जब सशस्त्र भीड़ ने राम कृष्ण और उनके परिवार को घेर लिया, तब एक मुस्लिम ग्रामीण ने अपनी जान की परवाह न करते हुए उनका बचाव किया. उस अजनबी की बहादुरी ने एक परिवार को मृत्यु के कगार से बचा लिया. राम कृष्ण अपने अंतिम दिनों तक उस इंसान की कृतज्ञता से याद करते रहे, जिसने नफरत की दीवारों के बीच मानवता की मशाल जलाए रखी. उनके पोते हरदीप सिंह गहिर ने कहा कि 'वह अक्सर बताते थे कि कैसे उस मुस्लिम व्यक्ति ने उनकी जान बचाई और कैसे उस दिन मानवता ने जीत हासिल की.'

दर्द के बीच भी जीवन की चमक

विभाजन के बाद धैंथल का गांव फिर कभी पहले जैसा नहीं रहा. जियोना की गर्भवती पत्नी ने दो महीने बाद अपनी बेटी मोहिंदर कौर को जन्म दिया. राम कृष्ण ने अपने जीवन में शादी को 30 साल तक टाला, क्योंकि उनका परिवार एक नई शुरुआत की लड़ाई लड़ रहा था, लेकिन उन्होंने बढ़ईगीरी की परंपरा को जारी रखा और आज उनके बेटे बलविंदर सिंह आधुनिक तकनीकों के साथ उस शिल्प को जीवित रखे हुए हैं.

नफरत के बीच इंसानियत की जीत

राम कृष्ण सिंह का जीवन न केवल एक दर्दनाक इतिहास का गवाह था, बल्कि यह साहस, करुणा और मानवता की जीत की भी कहानी है. उनके परिवार ने कहा कि 'राम कृष्ण ने चुपचाप जीवन जिया, लेकिन उनकी कहानी हमें याद दिलाती है कि नफरत के अंधकार में भी दयालुता के दीप जल सकते हैं, जो पीढ़ियों तक रोशनी फैलाते हैं.'

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