दिल्ली में कांग्रेस की हरियाणा वाली गलती, अगर साथ होते तो बन जाता काम
कांग्रेस पार्टी की राजनीतिक स्थिति पर एक बड़ा सवाल है कि वह क्यों एक ओर जरूरी है और दूसरी ओर मजबूरी बन गई है. हाल ही में हुए हरियाणा विधानसभा चुनावों और दिल्ली में आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन में विफलता ने कांग्रेस को एक गंभीर चुनौती दी है. कांग्रेस की हार का मुख्य कारण क्षेत्रीय दलों से मुकाबला करना और उनकी चुनावी रणनीति का कमजोर होना है.

दिल्ली विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी को लगातार तीसरी बार करारी हार का सामना करना पड़ा और पार्टी फिर खाता तक नहीं खोल पाई. विधानसभा चुनाव से पहले, कांग्रेस के कई नेता दिल्ली में सत्ता की वापसी के दावे कर रहे थे. लेकिन परिणाम सामने आने के बाद पार्टी दफ्तर पर सन्नाटा छा गया. कांग्रेस को दिल्ली की 65 से अधिक सीटों पर तीसरा स्थान मिला.
दिल्ली में कांग्रेस ने वही गलती दोहराई जो उन्होंने हरियाणा में की थी. हरियाणा विधानसभा चुनाव के परिणामों पर गौर किया जाए तो आम आदमी पार्टी और कांग्रेस ने गठबंधन करने से साफ मना कर दिया था. लोकसभा चुनाव के बाद यह पहला मौका था, जब विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' को एक बड़ा झटका लगा और गठबंधन में दरार आई. कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने एक-दूसरे के खिलाफ अपने-अपने प्रचार में ताकत झोंकी और चुनाव लड़ा. परिणाम ने सबको चौंका दिया.
आप ने खड़ी की मुश्किल
कांग्रेस की हार का प्रमुख कारण आम आदमी पार्टी थी, जिसने कांग्रेस के लिए चुनावी मुश्किलें खड़ी की. दिल्ली में भी कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच गठबंधन की चर्चाएं पूरी तरह से खत्म हो गईं, और परिणाम सामने आ गए. पिछले चुनाव में जहां आम आदमी पार्टी ने 62 सीटें जीती थीं, वहीं इस बार पार्टी केवल 22 सीटों तक ही सीमित रह गई. वहीं, भाजपा ने शानदार प्रदर्शन करते हुए 48 सीटों पर जीत हासिल की, और अपनी स्थिति को मजबूत किया.
उदहारण के तौर पर देखा जाए तो तिमारपुर विधानसभा सीट पर बीजेपी के सूर्य प्रकाश खत्री को 55941 वोट मिले. अगर यहां आप और कांग्रेस मिलकर चुनाव लड़ती तो दोनों को मिलाकर इनसे ज्यादा वोट मिलते. यही हाल त्रिलोकपुरी, संगम विहार, छतरपुर, मेहरौली का भी था. इन जगहों पर दोनों कैंडिडेट के वोट मिला लिए जाएं तो विजेता प्रत्याशी के वोट से ज्यादा होते हैं.
इस बार दिल्ली में कांग्रेस की हार के कुछ प्रमुख कारण हैं जिन्हें हम विस्तार से समझ सकते हैं.
- पहला कारण पार्टी के अंदर गुटबाजी का था. चुनाव के दौरान नए और पुराने नेताओं के बीच समन्वय की कमी स्पष्ट रूप से देखी गई. खासतौर पर चांदनी चौक से कांग्रेस के प्रत्याशी मुदित अग्रवाल ने कांग्रेस नेता संदीप दीक्षित पर कई गंभीर आरोप लगाए. यह गुटबाजी चुनाव में पार्टी की एकजुटता को कमजोर करती है और मतदाताओं के बीच नकारात्मक प्रभाव डालती है.
- दूसरा कारण केंद्रीय नेतृत्व की चुनाव प्रचार से दूरी थी. भाजपा ने चुनाव प्रचार में बहुत मेहनत की थी, जहां केंद्रीय नेताओं और विभिन्न प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों ने प्रचार में सक्रिय रूप से भाग लिया था. उन्होंने डोर टू डोर कैंपेन, रोड शो, और जनसभाओं के जरिए जनता तक अपनी बात पहुंचाई. इसके विपरीत, कांग्रेस के बड़े नेता चुनाव प्रचार में नजर नहीं आए. हालांकि, चुनाव के आखिरी हफ्ते में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने मोर्चा संभाला, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी.
- तीसरा कारण कांग्रेस की योजनाओं को जनता तक न पहुंचा पाना था. कांग्रेस ने दिल्ली विधानसभा चुनाव में कई गारंटियों का ऐलान किया था, जैसे महिलाओं को हर महीने ₹2100 देने, फ्री बिजली, युवाओं को ₹8500 और गैस सिलेंडर की सस्ती दरें. लेकिन कांग्रेस अपनी इन योजनाओं को जनता तक प्रभावी तरीके से नहीं पहुंचा सकी, जबकि भाजपा ने अपनी योजनाओं का कार्यकर्ताओं के माध्यम से डोर टू डोर प्रचार कर दिया था.
- अंतिम कारण कांग्रेस के नेताओं की चुनावी सक्रियता की कमी थी. चुनाव से पहले कई प्रत्याशियों ने हार मान ली थी और उन्होंने जमीनी स्तर पर कोई चुनाव प्रचार नहीं किया. इसके अलावा, राहुल गांधी के कई कार्यक्रमों को कैंसिल किया गया, जिससे जनता में यह गलत संदेश गया कि पार्टी पूरी तरह से हार मान चुकी है. इससे भी कांग्रेस के लिए चुनावी माहौल खराब हुआ.
उदित राज ने बताया हार का कारण
कांग्रेस के एक नेता उदित राज ने इसे लेकर एक पोस्ट में कहा कि कांग्रेस का वोट आम आदमी पार्टी में नहीं, बल्कि बीजेपी में जा रहा था. उनका मानना था कि कांग्रेस ने सामाजिक न्याय के मुद्दे पर कोई काम नहीं किया और इस दौरान पार्टी का वोट बीजेपी की ओर पलट गया. यह कांग्रेस के लिए एक स्वर्णिम अवसर था, जिसे वह भुना नहीं पाई. इसके अलावा, दलित और पिछड़े वर्ग के मतदाता भी कांग्रेस से नाराज थे. उदित राज ने अपने पोस्ट में लिखा कि कांग्रेस ने 2006 में पिछड़ों के लिए उच्च शिक्षा में आरक्षण तो दिया था, लेकिन अरविंद केजरीवाल ने इसका विरोध किया. इसके परिणामस्वरूप दलित और पिछड़े वर्ग के मतदाता कांग्रेस से नाराज हो गए और उन्होंने भाजपा को अपना समर्थन दिया.