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कहानी 'वंदे मातरम्' की... मां भारती की जय से आज़ादी की गूंज तक का सफर

7 नवंबर 1875 को नैहाटी के एक आम के पेड़ तले बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने “वंदे मातरम्” की रचना की - एक ऐसा गीत जिसने भक्ति को राष्ट्रभक्ति में बदल दिया. “आनंदमठ” से लेकर आज़ादी की रात तक, यह गीत भारत के स्वतंत्रता संग्राम का प्राण बन गया. टैगोर की धुन, पलुस्कर की आवाज़ और सुचेता कृपलानी के सुरों में इसकी गूंज आज भी देशभक्ति का प्रतीक है.

कहानी वंदे मातरम् की... मां भारती की जय से आज़ादी की गूंज तक का सफर
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प्रवीण सिंह
Curated By: प्रवीण सिंह

Published on: 9 Nov 2025 11:41 AM

7 नवंबर 1875 - यह दिन था अक्षय नवमी का, जब बंगाल में जगद्धात्री पूजा का उत्सव मनाया जाता है. इसी पावन दिन, नैहाटी के कांथालपाड़ा गांव में आम के पेड़ के नीचे बैठे एक मनीषी ने ऐसे शब्दों की रचना की, जो आगे चलकर भारत की आत्मा की पुकार बन गए - “वंदे मातरम्.”

इंडिया टुडे की रिपोर्ट के अनुसार, बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय (27 जून 1838 – 8 अप्रैल 1894), जो उस समय एक डिप्टी कलेक्टर और ब्रिटिश प्रशासनिक अधिकारी थे, उनके भीतर एक क्रांतिकारी कवि और देशभक्त छिपा था. ब्रिटिश शासन से व्यथित बंकिमचंद्र ने उस दिन जो कविता लिखी, उसमें उन्होंने मां भारती को देवी दुर्गा के रूप में देखा - हरी-भरी नदियों, शस्य-श्यामल खेतों, मंद समीर और सौंदर्य से सजी मां, लेकिन अत्याचारियों को नष्ट करने के लिए सौ भुजाओं वाली शक्ति स्वरूपा भी.

उन्होंने संस्कृत की गंभीरता और बांग्ला की मधुरता को मिलाकर भारत का पहला सांस्कृतिक राष्ट्रगान रचा - एक ऐसा गीत जो प्रार्थना भी था, पुकार भी.

मूल ‘वंदे मातरम्’ (पूरा संस्करण - 6 श्लोक)

वन्दे मातरम्!

सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्,

शस्य श्यामलां मातरम्॥

शुभ्र ज्योत्स्ना पुलकित यामिनीम्,

फुल्ल कुसुमित द्रुमदल शोभिनीम्,

सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्,

सुखदां वरदां मातरम्॥ वन्दे मातरम्॥

कोटि कोटि कण्ठ कलकल निनाद कराले,

कोटि कोटि भुजैर्धृत खरकरवाले,

अबला केनो मा एतो बले.

बहुबल धारिणीं, नमामि तारिणीं,

रिपुदल वारिणीं मातरम्॥ वन्दे मातरम्॥

तुमि विद्या, तुमि धर्म, तुमि हृदि, तुमि मर्म,

त्वं हि प्राणा: शरीरे बाहुते तुमि मा शक्ति,

हृदये तुमि मा भक्ति, तोमारै प्रतिमा गड़ि

मन्दिरे मन्दिरे॥ वन्दे मातरम्॥

त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी,

कमला कमलदल विहारिणी,

वाणी विद्यादायिनी, नमामि त्वां,

नमामि कमलाम्, अमलाम् अतुलाम्,

सुजलां सुफलाम् मातरम्॥ वन्दे मातरम्॥

श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषितां,

धरणीं भरणीं मातरम्॥ वन्दे मातरम्॥

छोटा (स्वीकृत) संस्करण - जो राष्ट्रीय गीत बना

वन्दे मातरम्!

सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्,

शस्य श्यामलां मातरम्॥

शुभ्र ज्योत्स्ना पुलकित यामिनीम्,

फुल्ल कुसुमित द्रुमदल शोभिनीम्,

सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्,

सुखदां वरदां मातरम्॥ वन्दे मातरम्॥

कागज़ से कंठ तक की यात्रा (1875–1886)

पांच वर्षों तक यह कविता बंकिमचंद्र की डायरी तक सीमित रही. 1882 में उन्होंने इसे अपने उपन्यास ‘आनंदमठ’ के तीसरे अध्याय में शामिल किया - वह कथा थी संन्यासियों के विद्रोह की, जो 1770 के बंगाल अकाल के दौरान ब्रिटिश कर-वसूली के खिलाफ उठ खड़े हुए थे. उपन्यास ‘बंगदर्शन’ पत्रिका में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ (1880–82) और बाद में पुस्तक बना. पहले-पहल जनता की प्रतिक्रिया कमजोर रही. निराश होकर बंकिम ने लिखा, “शायद मुझे ‘वंदे उदरम्’ - पेट की स्तुति लिखनी चाहिए थी.”

पहली सार्वजनिक गूंज (1886)

दिसंबर 1886, कलकत्ता में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का दूसरा अधिवेशन हुआ. यहां हेमचंद्र बंद्योपाध्याय ने इसके दो श्लोकों को संगीतबद्ध किया और पहली बार सार्वजनिक रूप से इसे गाया गया. सभा में उपस्थित प्रतिनिधि उठ खड़े हुए - आंखों में आंसू, आवाज़ में कंपन. वह था भारत का पहला सामूहिक राष्ट्रगीत का क्षण. कहा जाता है कि इसका प्रथम गायन राग मल्हार में हुआ, जिसकी ताल कौली ताल थी, जिसे पंडित जदुनाथ भट्टाचार्य ने स्वर दिया. बाद में श्री अरविंदो ने इसका अंग्रेजी अनुवाद किया और इसे आध्यात्मिक राष्ट्रीय गीत का रूप दिया. उनका अनुवाद वंदे मातरम् को राजनीतिक से अधिक आध्यात्मिक प्रतीक बना गया.

टैगोर की आवाज़ (1896)

रवीन्द्रनाथ टैगोर ने 1896 के कलकत्ता कांग्रेस अधिवेशन में अपने सुरों में “वंदे मातरम्” गाया. यह संस्करण शांति निकेतन की आम्रकुंजों में जन्मा था. 1904–05 में टैगोर ने इसका पहला ग्रामोफोन रिकॉर्ड बनाया. 1905 में लॉर्ड कर्ज़न द्वारा बंगाल विभाजन के बाद ब्रिटिश सरकार ने रिकॉर्ड पर प्रतिबंध लगाया - लेकिन पेरिस और बर्लिन में छिपकर इसके संस्करण बनाए गए और भारत में तस्करी से लाए गए.

युद्ध का नारा बनता गीत (1905–1911)

बंगाल विभाजन ने “वंदे मातरम्” को आंदोलन का युद्धनाद बना दिया. ढाका के स्कूलों में बच्चे इसे गाते हुए लाठी खाते थे. सिस्टर निवेदिता ने इसे अपने विद्यालय में प्रार्थना बना दिया. विदेशी कपड़ों की दुकानों के सामने सत्याग्रही इसे नारे की तरह गाते. 1906 में बरिसाल गोलीकांड में जब पुलिस ने इस गीत गाते प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाई, तो इसकी पंक्तियां रक्त से रंजित हो गईं. 1907 में जर्मनी के स्टुटगार्ट सम्मेलन में भीकाजी कामा ने भारत का पहला तिरंगा झंडा फहराया, पीले पट्टे पर लिखा था “वंदे मातरम्” - भारत की आज़ादी का अंतरराष्ट्रीय उद्घोष.

आवाज़ों का विस्तार (1915–1947)

पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर ने ब्रिटिश प्रतिबंधों की परवाह किए बिना इसे हर कांग्रेस सत्र में गाया. सुभाष चंद्र बोस ने अपनी आजाद हिंद फौज के लिए “वंदे मातरम्” का मार्चिंग वर्जन (राग दुर्गा) बनवाया. तिमिर बरन के संगीत निर्देशन में इसे आजाद हिंद रेडियो से हर रात प्रसारित किया जाता था. 14 अगस्त 1947 को, जब संविधान सभा ने भारत की स्वतंत्रता की घोषणा के लिए मध्यरात्रि सत्र शुरू किया, सुचेता कृपलानी ने “वंदे मातरम्” गाकर सत्र का शुभारंभ किया. मध्‍यरात्रि में पंडित ओंकारनाथ ठाकुर ने ऑल इंडिया रेडियो पर इसका पूरा संस्करण गाया - भारत की आज़ादी की पहली सांस ‘वंदे मातरम्’ के सुरों में गूंजी. बाद में AIR की सुबह की सिग्नेचर धुन भी “वंदे मातरम्” पर आधारित रही, जिसे चेक मूल के संगीतकार वाल्टर कॉफ़मैन ने तैयार किया था.

विवाद और प्रतिबंध

लेकिन इसकी गूंज जितनी प्रबल थी, विवाद भी उतने ही गहरे. मुस्लिम लीग ने आपत्ति जताई कि “वंदे मातरम्” की देवी-दुर्गा रूपी कल्पना इस्लाम के तौहीद सिद्धांत (एक ईश्वर की उपासना) से मेल नहीं खाती. 1937 में कांग्रेस ने केवल पहले दो श्लोकों - जिनमें धार्मिक संदर्भ नहीं थे - को राष्ट्रीय गीत के रूप में स्वीकार किया. आज़ादी के बाद भी बहस जारी रही. 24 जनवरी 1950 को राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने कहा, “वंदे मातरम्, जिसने स्वतंत्रता संग्राम में ऐतिहासिक भूमिका निभाई है, उसे ‘जन गण मन’ के समान आदर दिया जाएगा.”

धर्म, राजनीति और वंदे मातरम्

आज भी “वंदे मातरम्” पर विवाद जारी हैं. कई मुस्लिम संगठन इसे ‘इबादत’ मानते हैं, जो इस्लाम में निषिद्ध है. राजस्थान और जम्मू-कश्मीर में जब इसे स्कूलों में अनिवार्य करने के आदेश आए, तो मुताहिदा मजलिस-ए-उलेमा (MMU) जैसे संगठनों ने इसे “ग़ैर-इस्लामी” बताया. लेकिन संगीतकार ए.आर. रहमान जैसे कलाकारों ने अपने आधुनिक संस्करणों से इसे नए युग की देशभक्ति की आत्मा बना दिया - जहां धर्म नहीं, भावना बोलती है. मद्रास हाईकोर्ट सहित कई अदालतों ने इसे अनिवार्य नहीं, प्रेरणादायक बताया - “वंदे मातरम्” गाना नागरिक कर्तव्य है, पर बाध्यता नहीं.

अमर विरासत

हर साल 7 नवंबर को, उसी नैहाटी के कांथालपाड़ा गांव में कुछ लोग आम के पेड़ के नीचे बैठकर मूल “वंदे मातरम्” गाते हैं. उनकी आवाज़ भारत के हर कोने में गूंजती है - रेडियो पर, फिल्मों में, और जन आंदोलनों में. यह गीत आज भी मां भारती की जय का प्रतीक है - एक गीत जो जन्मा भक्ति में, पला संघर्ष में, और जी रहा है गौरव में.

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