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उपराष्ट्रपति ने क्यों दिया इस्तीफा, 36 घंटे बाद भी सस्पेंस बरकरार! क्या धनखड़ के खिलाफ महाभियोग लाने वाली थी बीजेपी?

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के इस्तीफे के 36 घंटे बाद भी उनकी अचानक हुई इस कार्रवाई की वजह साफ नहीं हो पाई है. सूत्रों के मुताबिक, अप्रैल से ही सरकार और धनखड़ के बीच टकराव चल रहा था, जो ‘point of no return’ तक पहुंच गया. भाजपा नेतृत्व ने कई बार सुलह की कोशिश की, लेकिन असफल रहा. अंततः धनखड़ ने ‘removal motion’ से बचने के लिए खुद इस्तीफा देकर पूरे घटनाक्रम पर नियंत्रण पाने की कोशिश की.

उपराष्ट्रपति ने क्यों दिया इस्तीफा, 36 घंटे बाद भी सस्पेंस बरकरार!  क्या धनखड़ के खिलाफ महाभियोग लाने वाली थी बीजेपी?
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( Image Source:  ANI )

Jagdeep Dhankhar resignation, Vice President vs BJP internal conflict: उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के इस्तीफे को 36 घंटे से अधिक समय बीत चुका है, लेकिन उनके अचानक पद छोड़ने को लेकर रहस्य और गहराता जा रहा है. जो बात अंदर ही अंदर खींचतान के रूप में शुरू हुई थी, वह अब धीरे-धीरे एक बड़े राजनीतिक घटनाक्रम का रूप लेती दिख रही है- और यह तो सिर्फ शुरुआत लग रही है.

सूत्रों की मानें तो उपराष्ट्रपति और केंद्र सरकार के बीच टकराव अप्रैल के अंत में उस मुकाम तक पहुंच गया था, जहां से वापसी संभव नहीं थी. धनखड़ की बढ़ती सक्रियता और कुछ एकतरफा फैसलों को भाजपा नेतृत्व ने संस्थागत स्वायत्तता के संकेत के रूप में देखा, जिससे पार्टी के भीतर चिंता बढ़ गई. इसे देखते हुए पार्टी ने संगठनात्मक स्तर पर मतभेदों को सुलझाने की प्रक्रिया शुरू की.

डेडलॉक बना रहा, संगठनात्मक प्रयास विफल

कम से कम तीन वरिष्ठ नेताओं, जिनमें दो संगठनात्मक पदाधिकारी शामिल थे, को इस मतभेद को सुलझाने की जिम्मेदारी दी गई थी. कई दौर की बैठकें और बातचीत के बावजूद गतिरोध बरकरार रहा. स्थिति जब नहीं संभली, तब पार्टी ने एक बेहद असाधारण विकल्प पर विचार करना शुरू किया- भारतीय संसदीय इतिहास में पहली बार किसी उपराष्ट्रपति के खिलाफ ‘हटाने का प्रस्ताव’ लाने की योजना. इस संभावना को देखते हुए, धनखड़ ने खुद ही स्थिति पर नियंत्रण लेते हुए इस्तीफा देना बेहतर समझा, ताकि संभावित ‘अपमान और राजनीतिक असुविधा’ से बचा जा सके. उनके इस्तीफे से एक संवैधानिक संकट तो टल गया, लेकिन कई संवेदनशील सवालों को जन्म दे दिया.

विपक्ष और विश्लेषकों की प्रतिक्रिया

विपक्षी दल इस पूरे घटनाक्रम को लोकतंत्र की संस्थाओं पर दबाव और 'संवैधानिक पदों की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप' के रूप में देख रहे हैं. राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह घटनाक्रम भारत की संवैधानिक राजनीति में एक नया मोड़ है, जिसकी गूंज लंबे समय तक सुनाई देगी.

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