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नोटबंदी के 8 साल: ये दिन किसी को न दिखाए भगवान, बैंक की लाइन में गुजरे कई दिन; पैसों की कमी ने सिखाया संघर्ष

नोटबंदी के समय मैं हरिद्वार के एक विश्वविद्यालय में मास्टर्स कर रहा था. उस समय मेरी जेब में काम लायक मात्र 120 रुपये पड़े हुए थे. साथ ही 500-500 के दो नोट पर्स में पड़े हुए थे. हॉस्टल में जिंदगी के गम से बेगाना मैं रविवार के आने का इंतजार कर रहा था. रविवार के दिन की छुट्टी के समय ही पैसों की जरुरत पड़ती थी.

नोटबंदी के 8 साल: ये दिन किसी को न दिखाए भगवान, बैंक की लाइन में गुजरे कई दिन; पैसों की कमी ने सिखाया संघर्ष
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नवनीत कुमार
By: नवनीत कुमार

Updated on: 8 Nov 2024 7:30 AM IST

नोटबंदी की वह रात मुझे आज भी अच्छी तरह याद है. 8 नवंबर 2016 का दिन था, जब प्रधानमंत्री ने रात 8 बजे आकर अचानक यह घोषणा की कि 500 और 1000 रुपये के नोट अब चलन में नहीं रहेंगे. ये सुनकर एकाएक झटका लगा, समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या होगा.

उस समय मैं हरिद्वार के एक विश्वविद्यालय में मास्टर्स कर रहा था. उस समय मेरी जेब में काम लायक मात्र 120 रुपये पड़े हुए थे. साथ ही 500-500 के दो नोट पर्स में पड़े हुए थे. हॉस्टल में जिंदगी के गम से बेगाना मैं रविवार के आने का इंतजार कर रहा था. रविवार के दिन की छुट्टी के समय ही पैसों की जरुरत पड़ती थी.

अगले दिन सुबह होते ही बैंक और एटीएम के बाहर लोगों की लंबी-लंबी लाइनें लगी हुई थी. मैं भी अपने पुराने नोट बदलवाने के लिए बैंक गया, लेकिन वहां भारी भीड़ थी. बैंक के कर्मचारियों के पास भी सबको समझाने और संभालने का सब्र खत्म हो चुका था. पहले दिन घंटों लाइन में खड़े रहने के बावजूद बैंक के बंद होने का समय आ गया और मेरी बारी नहीं आई.

अगले दिन जैसे तैसे छुट्टी लेकर फिर से 8 बजे जाकर लाइन में लग गया. मेरे सामने वाली लाइन में एक बुजुर्ग महिला एक झोला लिए खड़ी थीं. इस झोले में उन्होंने एक पोटली रख रखा था. उसी में पुराना 500 के चार नोट लिए बड़े जतन से रखी थी. मैंने उनसे पूछा कि अम्मा ये पैसे कहां छुपाकर रखे थे जो बदलवाने आई हो. उन्होंने चेहरे पर मुस्कान लाते हुए कहा कि ये पैसे मेरे बेटे ने भेजे थे, वो दिल्ली में काम करता है. बीमार हूं और अब मुझे पैसे की जरुरत है तो लाइन में लग गई.

बच्चे को पानी में भिगोकर खिलाया बिस्कुट

लाइन में आगे पीछे खड़े लोगों से लगभग जान पहचान हो चुकी थी. सभी अपनी समस्या बता रहे थे. मेरे पीछे खड़े भाई ने कहा कि पैसों की कमी की वजह से सब्जियां, दूध और राशन लाने में परेशानी हो रही है. मेरे दो छोटे छोटे बच्चे हैं. एक गोद में है तो उसे दूध के बिना रहा नहीं जाता. पैसों की इतनी तंगी है कि बच्चा पूरी रात दूध के लिए रोया और मैं लाचार होकर उसे बस देख रहा था. इसके बाद पत्नी ने पार्लेजी बिस्कुट को पानी में भिगाकर खिलाया तब जाकर शांत हुआ. मैं पूरी रात इसी चिंता में सो नहीं पाया कि कैसा अभागा बाप हूं कि अपने बच्चे के लिए दूध का पैसा नहीं जुटा पाया. सुबह हुई तो मैं सीधे बैंक चला आया और आपके साथ लाइन में खड़ा हूं. ये सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए. मेरा मन कर रहा था कि अभी किसी तरह उसकी मदद करूं लेकिन क्या करता, आखिर मैं भी लाचार था. मैं भी नोट बदलवाने की लाइन में खड़ा था.

गेट खुलते ही टूट पड़ते थे लोग

काफी समय इंतजार करने के बाद 10 बजे बैंक खुला, बैंक खुलते ही लोगों की भीड़ लाइन तोड़ते हुए गेट की तरफ भागने लगी. जबतक मैं कुछ समझ पाता तबतक बहुत देर हो चुकी थी. उस दिन भी निराशा हाथ लगी. नकदी की सख्त जरूरत थी, लेकिन जब पैसों तक पहुंच नहीं हो तो हर छोटी चीज मुश्किल लगने लगती है. घर पर फोन किया तो पिताजी ने किसी तरह जुगाड़ लगाकर 1000 रुपये अकाउंट में भिजवाए. अब उसे निकालने की जद्दोजहद शुरू हुई. कई बार ऐसा हुआ कि मैं एटीएम की कतार में खड़ा होता, लेकिन अपनी बारी आते-आते नकदी खत्म हो जाती. निराशा और हताशा बढ़ने लगी थी. उस समय डिजिटल भुगतान के साधन सीमित थे और छोटे दुकानदार भी ज्यादातर नकद पैसे ही लेते थे.

एटीएम के चक्कर लगाना था नया रूटीन

कुछ समय तक मुझे दोस्तों से उधार लेना पड़ा और किसी तरह दिन गुजारने की कोशिश करता रहा. इस दौरान हर दिन एक जद्दोजहद बन चुका था. सुबह से लेकर शाम तक बैंकों और एटीएम के चक्कर लगाना ही मेरा नया रूटीन बन गया था. कई बार तो एक छोटी सी रकम के लिए भी घंटों इंतजार करना पड़ता था, और हर बार यह डर सताता था कि कहीं आज फिर खाली हाथ न लौटना पड़े.

इस अनुभव को बीते हुए आज 8 साल हो गए हैं. आज भी उस दिन को याद कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं. उस समय ने मुझे यह सिखाया कि कैसे हमारे पास नकदी होने के बावजूद हम अनिश्चित परिस्थितियों में कितने असहाय हो सकते हैं. अभी भी ये अनुभव बताते हुए एक ही बात याद आती है कि हाय रे नोटबंदी.

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