जुलाई विद्रोह केस में बांग्लादेश की पूर्व पीएम शेख हसीना को फांसी की सजा, इंटरनेशनल क्राइम ट्रिब्यूनल का बड़ा फैसला
बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना को जुलाई विद्रोह के दौरान नागरिकों की हत्या और मानवाधिकार उल्लंघन के आरोपों में इंटरनेशनल क्राइम ट्रिब्यूनल ने फांसी की सजा सुनाई है. 458 पन्नों के फैसले में कोर्ट ने वायरल ऑडियो, कॉल रिकॉर्ड्स और गवाहियों के आधार पर हसीना को दोषी करार दिया. फैसले में सुरक्षा बलों द्वारा 1,400 से अधिक लोगों की मौत और 11,000 से ज्यादा गिरफ्तारियों का भी उल्लेख है. इस ऐतिहासिक निर्णय ने बांग्लादेश की राजनीति और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार बहसों में बड़ा तूफ़ान खड़ा कर दिया है.;
बांग्लादेश की सियासत में उस वक्त बड़ी उथल–पुथल मच गई जब देश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना को इंटरनेशनल क्राइम ट्रिब्यूनल (ICT) ने जुलाई विद्रोह में हिंसा और नागरिकों की मौत के लिए दोषी करार देते हुए फांसी की सजा सुना दी. यह फैसला न केवल बांग्लादेश की राजनीति में एक नया मोड़ लेकर आया है, बल्कि हसीना के तीन दशक से अधिक लंबे राजनीतिक करियर पर भी गंभीर सवाल खड़े करता है.
ट्रिब्यूनल ने अपने फैसले में साफ कहा कि जुलाई विद्रोह के दौरान सुरक्षा बलों को मिली “घातक कार्रवाई” की मंजूरी सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय से गई थी. फैसले के साथ जारी किए गए दस्तावेज़ों, ऑडियो टेप और गवाहियों ने कोर्ट की कार्रवाई को और अधिक नाटकीय बना दिया, जिससे यह केस अब बांग्लादेश के इतिहास की सबसे जटिल और विवादित राजनीतिक सुनवाइयों में शामिल हो गया है.
वायरल ऑडियो बना सबसे बड़ा सबूत
फैसला सुनाते समय ट्रिब्यूनल ने वह ऑडियो रिकॉर्डिंग भी सार्वजनिक की, जिसमें कथित तौर पर हसीना बांग्लादेश पुलिस प्रमुख को प्रदर्शनकारियों पर “कड़ी कार्रवाई” का निर्देश देते सुनी गई थीं. यह वही ऑडियो है जो विद्रोह के समय सोशल मीडिया पर वायरल हुआ था और जिसने पूरे मामले की जांच का रुख बदल दिया था. कोर्ट ने कहा कि ऑडियो की फॉरेंसिक जांच से उसकी प्रामाणिकता साबित हो चुकी है.
न्यायालय ने पेश किए 458 पन्नों के सबूत
ICT द्वारा जारी 458 पन्नों के फैसले में यह स्पष्ट कहा गया है कि जुलाई विद्रोह के दौरान हुए नरसंहार जैसी घटनाओं की ज़िम्मेदारी सीधे शेख हसीना पर जाती है. फैसला बताता है कि सरकार, पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों के बीच की मीटिंग्स, कॉल रिकॉर्ड्स और आदेशों की चेन हसीना के निर्देशों तक जाकर रुकती है.
चुनावों के बाद बढ़ी थी कार्रवाई
ट्रिब्यूनल ने अपने आदेश में लिखा कि जनवरी 2024 के चुनावों के बाद विपक्ष पर कार्रवाई और मीडिया पर नियंत्रण जैसे कदमों ने बांग्लादेश को “तानाशाही शासन की ओर धकेल दिया.” फैसले में कहा गया कि छात्रों के शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर गोलीबारी कोई आकस्मिक निर्णय नहीं था, बल्कि सत्ता संरचना के उच्च स्तर पर तैयार की गई एक कार्ययोजना का हिस्सा था.
पूर्व पुलिस प्रमुख अल-मामून ने पलटी गवाही
इस मामले में सबसे बड़ा झटका हसीना को तब लगा जब अभियान की अगुवाई कर रहे पूर्व पुलिस महानिरीक्षक चौधरी अब्दुल्ला अल-मामून ने अदालत में बयान बदल दिया. उन्होंने कहा कि उन्हें प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने का निर्देश “सीधे शीर्ष नेतृत्व” से मिला था. उनकी गवाही ने अभियोजन पक्ष की दलीलों को मजबूत किया और केस की दिशा पूरी तरह बदल दी.
ट्रिब्यूनल में मंत्री और अधिकारियों की बातचीत भी पढ़ी गई
ट्रिब्यूनल ने सुनवाई के दौरान हसीना और उनके मंत्री हसनुल हक इनु के बीच कई टेलीफोनिक बातचीत भी पढ़कर सुनाई. इन कॉल्स में छात्रों के प्रदर्शन को “आतंकी कार्रवाई” घोषित करने की चर्चा का उल्लेख किया गया. कोर्ट ने कहा कि इन बातचीतों से स्पष्ट है कि सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल राजनीतिक विरोध को कुचलने के लिए किया गया.
सुरक्षाबलों पर हत्या का आरोप
फैसले के अनुसार 1,400 से अधिक लोग सुरक्षा बलों द्वारा चलाई गई धातु-छर्रा वाली गोलियों से मारे गए. कोर्ट ने बताया कि सेना, पुलिस और RAB ने “न्यायिक प्रक्रिया को नजरअंदाज करते हुए” कई नागरिकों की हत्या की. करीब 11,000 लोगों को हिरासत में लिया गया, जिनमें से कई महीनों तक बिना ट्रायल जेल में रहे.
तीन बड़े नेताओं पर संयुक्त साजिश का आरोप तय
ट्रिब्यूनल ने अपने फैसले में साफ किया कि शेख हसीना अकेली जिम्मेदार नहीं थीं. पूर्व गृह मंत्री असदुज्जमान खान कमाल और पूर्व पुलिस प्रमुख अल-मामून को भी “मानवता के खिलाफ अपराधों के संयुक्त षड्यंत्र” का दोषी पाया गया है. कोर्ट के अनुसार तीनों ने मिलकर कार्रवाई की रणनीति बनाई और उसे अंजाम दिया.
फैसले पर विवाद गहराया
हालांकि फैसला ऐतिहासिक है, मगर इसके साथ विवाद भी बढ़ गया है. यह ट्रिब्यूनल नाम भले इंटरनेशनल क्राइम ट्रिब्यूनल हो, लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसकी कोई औपचारिक मान्यता नहीं है. विशेषज्ञों का मानना है कि यह मामला अब बांग्लादेश की राजनीति, अंतरराष्ट्रीय कूटनीति और मानवाधिकार बहसों में लंबे समय तक चर्चा का विषय रहेगा.