ये कहां का न्याय है? जिसने सालों सताया, वही बना हाईकोर्ट का न्यायधीश, MP की सिविल जज ने दिया इस्तीफा

जब जज को ही इंसाफ न मिले, तो आम जनता का क्या होगा? ऐसा ही कुछ मध्य प्रदेश में एक महिला सिविल जज के साथ हुआ, जिसने दूसरे सीनियर पर हरैसमेंट के आरोप लगाए थे. उस शख्स पर एक्शन या जांच करने के बजाय उसे हाईकोर्ट में पद मिला.;

( Image Source:  AI Perplexity )
Edited By :  हेमा पंत
Updated On : 30 July 2025 12:00 PM IST

जिस सिस्टम से हम न्याय की उम्मीद रखते हैं, अगर उसी सिस्टम के भीतर बैठे एक जज को सालों तक न्याय न मिले, तो ये सिर्फ एक अफ़सोसजनक घटना नहीं, बल्कि एक बहुत बड़ा सवाल है. मध्य प्रदेश की सिविल जज अदिति कुमार शर्मा की कहानी ने पूरे देश को झकझोर दिया है.

उन्होंने उत्पीड़न के खिलाफ आवाज़ उठाई. हर दरवाज़ा खटखटाया, लेकिन बदले में मिला सिर्फ़ खामोशी और अनदेखी. जब एक जज को ही न्याय नहीं मिल रहा, तो सोचिए आम इंसान के लिए ये रास्ता कितना मुश्किल होगा? ऐसे में 28 जुलाई 2025 को मध्य प्रदेश के शहडोल ज़िले में तैनात सिविल जज अदिति कुमार शर्मा ने न्यायिक सेवा से इस्तीफा दे दिया. 

संस्थान ने मुझे विफल किया

अपने इस्तीफ़ा पत्र में अदिति शर्मा ने साफ़ शब्दों में कहा कि 'मैं इसलिए नौकरी छोड़ रही हूं क्योंकि मैंने संस्था को नहीं, बल्कि संस्था ने मुझे नाकाम किया है. उन्होंने कहा कि जिन सीनियर जज ने उनके साथ कई सालों तक गलत व्यवहार किया, उनके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं हुई. उल्टा उन्हें इनाम मिला, ऊंचा पद मिल गया और यहां तक की जांच भी नहीं हुई.'

मैं बदला नहीं चाहती थी, सिर्फ न्याय

अदिति ने लिखा कि उन्होंने हर तरीका अपनाया. शिकायतें कीं, सबूत दिए और काफी इंतज़ार भी किया. लेकिन इसके बदले में कुछ नहीं हुआ. ना कोई जांंच हुई, ना नोटिस मिला, ना सुनवाई हुई और ना ही किसी को ज़िम्मेदार ठहराया गया. उन्होंने कहा कि उनका मकसद किसी से बदला लेना नहीं था, बल्कि उस न्याय को पाना था जिस पर उन्होंने हमेशा भरोसा किया. अंत में उन्होंने लिखा 'अब मैं जा रही हूं... दिल पर चोट के साथ, लेकिन बिना किसी नाराज़गी के.'

पहले भी हो चुकी थी अनदेखी

अदिति उन छह महिला जजों में शामिल थीं, जिनकी नौकरी 2023 में यह कहकर छीन ली गई थी कि उनका काम ठीक नहीं है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस पर खुद ध्यान दिया और फरवरी 2024 में फैसला सुनाया कि अदिति को हटाना गलत और बिना वजह था. कोर्ट ने कहा कि उन्हें फिर से नौकरी पर रखा जाए. लेकिन इसके बावजूद, अदिति शर्मा ने दोबारा जज बनने के बजाय इस्तीफ़ा देना ही ठीक समझा.

क्या यही न्याय है?

जब अंदर से ही न्यायपालिका की चुप्पी और पक्षपात उजागर हो, तो संस्थान की विश्वसनीयता कैसे बची रहे? क्या वाकई हमारी न्याय व्यवस्था में न्याय सबसे ऊपर है? या फिर पद, पहचान और चुप्पी ज़्यादा अहमियत रखते हैं? ये सिर्फ अदिति शर्मा की कहानी नहीं है. ये कहानी उस हर शख्स की है, जो संस्थान के भीतर रहकर अन्याय के खिलाफ़ आवाज़ उठाता है. लेकिन जब संस्थान ही आंखें मूंद ले, तब इंसाफ़ एक सपना बनकर रह जाता है. अब जरूरत है संस्थागत जवाबदेही की, वरना "न्याय" सिर्फ किताबों तक सीमित रह जाएगा.

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