राजा भभूत सिंह: सतपुड़ा का वो आदिवासी योद्धा, जिसने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था
पचमढ़ी की वादियों में मध्य प्रदेश सरकार की कैबिनेट बैठक राजा भभूत सिंह को समर्पित रही, जो 1857 की क्रांति में आदिवासी समुदाय के नेता और गुरिल्ला योद्धा थे. उन्होंने जल-जंगल-जमीन के आत्मसम्मान के लिए अंग्रेजों से संघर्ष किया और तात्या टोपे के साथ मिलकर रणनीति बनाई. देनवा घाटी में ब्रिटिश सेना को हराने जैसे कारनामे उनके साहस के प्रमाण हैं.;
पचमढ़ी की हसीन वादियों में मंगलवार को जब मध्य प्रदेश सरकार की कैबिनेट बैठक आयोजित हुई, तो इसका मकसद सिर्फ प्रशासनिक नहीं, बल्कि ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संदेश देना भी था. मुख्यमंत्री मोहन यादव की अगुवाई में यह बैठक एक ऐसे गुमनाम नायक की स्मृति को समर्पित थी, जिन्होंने अपने जल, जंगल और ज़मीन की रक्षा के लिए ब्रिटिश साम्राज्य से टकराने में कभी हिचक नहीं दिखाई, वो नायक थे राजा भभूत सिंह.
राजा भभूत सिंह गोंड़ समुदाय से ताल्लुक रखते थे और सतपुड़ा की पहाड़ियों में बसे हर्राकोट रियासत के जागीरदार थे. वह न केवल अपने क्षेत्र के प्रभावशाली नेता थे, बल्कि अपने समय के उन विरले स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे, जिन्होंने 1857 की क्रांति में सक्रिय भूमिका निभाई.
इतिहास के पन्नों में राजा भभूत सिंह का नाम वीरता, गुरिल्ला युद्ध और संगठन शक्ति के लिए दर्ज है. उन्होंने अपने आदिवासी समुदाय को एकजुट कर अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष की लौ जलाई. उनका मानना था कि जल-जंगल-जमीन सिर्फ संसाधन नहीं, बल्कि आत्मसम्मान का प्रतीक हैं.
1857 की क्रांति और तात्या टोपे के साथ गठजोड़
तात्या टोपे जब ब्रिटिश सेना से संघर्ष करते हुए सतपुड़ा क्षेत्र में पहुंचे, तो राजा भभूत सिंह पहले ही स्वतंत्रता संग्राम के लिए तैयार खड़े थे. माना जाता है कि पचमढ़ी की घाटियों में तात्या टोपे और भभूत सिंह ने मिलकर 8 दिनों तक गुप्त रणनीति तैयार की, जिसके बाद नर्मदांचल और आसपास के इलाकों में अंग्रेजों के खिलाफ बड़ी क्रांतिकारी गतिविधियां शुरू हुईं. राजा भभूत सिंह ने न केवल अपनी सेना को प्रशिक्षित किया, बल्कि आस-पास के आदिवासी युवाओं को भी लड़ने और लड़ना सिखाया. उनका प्रभाव इतना व्यापक था कि उनकी एक पुकार पर आदिवासी समुदाय सशस्त्र संघर्ष के लिए तैयार हो जाता था.
गुरिल्ला योद्धा, जिसकी रणनीति से कांपे अंग्रेज
राजा भभूत सिंह गुरिल्ला युद्ध की उस शैली के माहिर थे, जिसे छत्रपति शिवाजी महाराज ने प्रसिद्ध किया था. वह सतपुड़ा के हर दर्रे, घाटी और जंगल से अच्छी तरह वाकिफ थे और इसी का फायदा उठाकर ब्रिटिश सेना पर अचानक हमले करते थे. एक ऐतिहासिक टकराव देनवा घाटी में हुआ, जहां उन्होंने ब्रिटिश मद्रास इन्फैंट्री को करारी शिकस्त दी. अंग्रेजों के लिए यह चौंकाने वाला था कि एक स्थानीय आदिवासी राजा की सेना ने प्रशिक्षित ब्रिटिश रेजीमेंट को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया. ब्रिटिश इतिहासकार इलियट ने लिखा है कि राजा भभूत सिंह को पकड़ना इतना मुश्किल था कि उनके लिए विशेष टुकड़ियां भेजनी पड़ीं.
मोहन सरकार ने क्यों चुनी पचमढ़ी?
पचमढ़ी में कैबिनेट मीटिंग आयोजित कर मुख्यमंत्री मोहन यादव ने साफ संकेत दिया कि मध्य प्रदेश की विरासत सिर्फ महलों और राजवंशों तक सीमित नहीं, बल्कि पहाड़ियों, जंगलों और उनके रक्षकों की भी है. भाजपा नेता दिलीप जायसवाल ने इस अवसर पर कहा, “राजा भभूत सिंह जैसे गुमनाम नायकों को श्रद्धांजलि देने और युवाओं को प्रेरणा देने के लिए यह कदम बेहद जरूरी था. यह सिर्फ एक मीटिंग नहीं, बल्कि हमारी इतिहासबोध और संस्कृतिक सम्मान की पुनर्पुष्टि है.”
इतिहास में अब तक गुमनाम क्यों रहे भभूत सिंह?
यह सवाल इतिहासकारों और सरकार दोनों के लिए गंभीर रहा है कि इतने साहसी और रणनीतिक रूप से दक्ष स्वतंत्रता सेनानी को भारत के स्वतंत्रता संग्राम में पर्याप्त स्थान क्यों नहीं मिला. इसका एक बड़ा कारण यह है कि आज़ादी की लड़ाई की मुख्यधारा में शामिल नेताओं और शहरी आंदोलनों को अधिक महत्व दिया गया, जबकि आदिवासी संघर्ष उपेक्षित रह गए.
आज की पीढ़ी के लिए संदेश
राजा भभूत सिंह न केवल एक योद्धा थे, बल्कि वे आदिवासी चेतना के प्रतीक भी हैं. उनका जीवन बताता है कि आज़ादी की लड़ाई केवल मैदानों और नगरों में नहीं, बल्कि जंगलों और पहाड़ियों में भी लड़ी गई थी. ऐसे नायकों को याद करना इतिहास नहीं, बल्कि आत्मसम्मान की पुनर्स्थापना है.
राजा भभूत सिंह उस परंपरा के वीर थे जिन्होंने धरती से जुड़े रहकर अपने लोगों के अधिकारों और स्वतंत्रता के लिए लड़ाई लड़ी. पचमढ़ी में कैबिनेट मीटिंग के ज़रिए उनकी विरासत को सम्मान देना एक स्वागतयोग्य कदम है, लेकिन असली सम्मान तब होगा जब उनका योगदान हर स्कूली किताब, हर युवा के मन और हर सरकारी नीति में दर्ज होगा.