कब-कब दहली दिल्ली: लाल किले से संसद तक गूंजे वो धमाके जिन्होंने हिला दिया हिंदुस्तान

लाल किले के पास हुआ धमाका दिल्ली के उस पुराने डर को फिर जगा गया है, जब राजधानी बार-बार आतंकी हमलों से कांप उठी थी. 1997 से 2025 के बीच दिल्ली में संसद, बाजारों और सिनेमा हॉल तक को निशाना बनाया गया. 14 साल बाद 2025 में हुआ यह विस्फोट फिर सुरक्षा व्यवस्था पर सवाल खड़े कर रहा है. जांच जारी है, पर शहर के जख्म फिर ताजा हो गए हैं.;

( Image Source:  ANI )
Edited By :  प्रवीण सिंह
Updated On : 10 Nov 2025 10:22 PM IST

देश की राजधानी फिर कांप उठी है. लाल किले के पास हुआ ताज़ा धमाका न सिर्फ दिल्ली की दीवारों को हिला गया, बल्कि उस डर को भी जगा गया जो हर दिल्लीवाले के दिल में सालों से कहीं गहराई में दबा था - आतंक के साए का डर.

पार्किंग में खड़ी एक कार में हुआ विस्फोट इतना भीषण था कि 11 लोगों की मौत हो गई और करीब 30 घायल हैं. अब यह सवाल उठ रहा है - क्या दिल्ली फिर उसी भयावह दौर की ओर लौट रही है, जब बम धमाकों की आवाज़ें इसकी सड़कों पर गूंजती थीं?

1997: जब राजधानी में पहली बार गूंजे सिलसिलेवार धमाके

90 के दशक के आखिर में दिल्ली पहली बार आतंक की जद में आई थी. जनवरी से अक्टूबर 1997 के बीच ITO, सदर बाजार, करोल बाग, और रानी बाग जैसे इलाकों में हुए धमाकों ने शहर की नींद उड़ा दी थी. बाजारों में बिखरे कांच के टुकड़े और लोगों के चेहरे पर जमी दहशत आज भी याद है. उस साल दिल्ली ने एक नए किस्म के डर को महसूस किया - जब किसी को नहीं पता था कि अगला धमाका कहां होगा.

1999–2000: रेल की पटरियों और भीड़भाड़ वाली गलियों तक पहुंचा आतंक

1999 और 2000 में आतंक का दायरा और बढ़ा. पुरानी दिल्ली और होलंबी कलां जैसे इलाकों में ट्रेनें तक बमों की शिकार बनीं. सदर बाजार और पहाड़गंज के धमाकों ने साफ कर दिया था कि दिल्ली के हर व्यस्त कोने में खतरा छिपा है. जून 2000 में लाल किले के पास हुए धमाके ने तो मानो देश के गौरव प्रतीक पर ही चोट कर दी थी - जिसमें दो निर्दोषों की जान चली गई.

2001: संसद पर हमला

13 दिसंबर 2001 का दिन भारतीय लोकतंत्र की सबसे काली तारीखों में गिना जाता है. जब पांच हथियारबंद आतंकी संसद भवन की दीवारों तक पहुंच गए. 12 लोगों की मौत हुई, लेकिन पूरे देश का खून खौल उठा. यह सिर्फ दिल्ली पर नहीं, बल्कि पूरे भारत के दिल पर हमला था.

2005: जब सिनेमा और बाजार बने निशाना

22 मई 2005 की शाम, जब लोग सिनेमा हॉल में फिल्म देखने पहुंचे थे, तभी लिबर्टी और सत्यं थिएटर धमाकों से हिल उठे. कुछ महीनों बाद धनतेरस की रौनक को तबाह कर दिया - जब सरोजिनी नगर, पहाड़गंज और गोविंदपुरी में एक साथ तीन विस्फोट हुए. उस दिन 62 लोगों की जान चली गई, और 200 से ज्यादा घायल हुए. जिम्मेदारी ली लश्कर-ए-तैयबा ने और दिल्ली ने जाना कि आतंक अब किसी एक जगह का नहीं रहा.

2006–2008: जामा मस्जिद से लेकर कनॉट प्लेस तक दहशत का जाल

14 अप्रैल 2006 को जामा मस्जिद के बाहर हुए धमाके से शुक्रवार की नमाज़ के बाद का सुकून पलभर में खौफ में बदल गया. फिर आया 13 सितंबर 2008 - वो दिन जब दिल्ली के दिल में एक साथ पांच जगह धमाके हुए: करोल बाग, गफ्फार मार्केट, कनॉट प्लेस और ग्रेटर कैलाश. महज 45 मिनट में पूरा शहर दहशत से जकड़ गया. इंडियन मुजाहिदीन ने ईमेल भेजकर कहा, “अब बारी तुम्हारी है.” यह धमाके सिर्फ विस्फोट नहीं थे, बल्कि आतंक की नई डिजिटल रणनीति की शुरुआत भी थे.

2011: हाईकोर्ट के दरवाज़े के बाहर जब गूंजा धमाका

7 सितंबर 2011 की सुबह, जब लोग न्याय की उम्मीद लेकर दिल्ली हाईकोर्ट पहुंचे थे, तभी गेट नंबर 5 के बाहर धमाका हुआ. नौ लोगों की मौत हुई और पचास घायल हुए.

2025: 14 साल बाद फिर कांपी राजधानी

10 नवंबर 2025… लाल किला मेट्रो स्टेशन के पास रेड लाइट पर खड़ी एक कार में जब धमाका हुआ, तो लपटों ने इतिहास के पन्ने खोल दिए. 10 लोगों की मौत और 30 घायल - ये आंकड़े फिर वही दर्द बयां कर रहे हैं, जो दिल्ली ने दो दशक पहले झेला था. शुरुआती रिपोर्ट में सीएनजी लीक की आशंका जताई गई, पर धमाके की तीव्रता ने इसे महज हादसा मानने से रोक दिया.

आतंकी साजिश या तकनीकी हादसा

फिलहाल जांच जारी है. पर दिल्लीवाले फिर वही डर महसूस कर रहे हैं - कहीं ये उस लंबे सन्नाटे की वापसी तो नहीं, जो 2011 के बाद खत्म हो गया था. विशेषज्ञों का कहना है कि दिल्ली की सुरक्षा व्यवस्था बीते एक दशक में मजबूत जरूर हुई है - सीसीटीवी नेटवर्क, इंटेलिजेंस रिपोर्टिंग और मॉनिटरिंग बढ़ी है - लेकिन खतरे का स्वरूप भी बदल गया है. अब आतंक सिर्फ बम से नहीं, बल्कि तकनीक और भ्रम से भी हमला करता है.

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