सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला: नागरिकता का पक्का सबूत नहीं है आधार, चुनाव आयोग का रुख सही

सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को चुनाव आयोग (ECI) के इस रुख का समर्थन किया कि आधार कार्ड को नागरिकता का अंतिम और पक्का प्रमाण नहीं माना जा सकता. अदालत ने स्पष्ट किया कि नागरिकता की पुष्टि के लिए स्वतंत्र और ठोस जांच आवश्यक है. यह टिप्पणी अदालत ने बिहार में मतदाता सूची के स्पेशल समरी रिवीजन (Special Summary Revision – SIR) को चुनौती देने वाली याचिकाओं की सुनवाई के दौरान की.;

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By :  स्टेट मिरर डेस्क
Updated On : 12 Aug 2025 4:22 PM IST

सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को एक अहम टिप्पणी करते हुए स्पष्ट किया कि आधार कार्ड को नागरिकता का अंतिम और निर्णायक प्रमाण नहीं माना जा सकता. अदालत ने कहा कि किसी व्यक्ति की नागरिकता की पुष्टि केवल आधार कार्ड के आधार पर नहीं की जा सकती, बल्कि इसके लिए स्वतंत्र रूप से सत्यापन आवश्यक है. जस्टिस सूर्यकांत की अध्यक्षता वाली पीठ ने यह टिप्पणी बिहार में मतदाता सूची के विशेष संक्षिप्त पुनरीक्षण (Special Summary Revision) को चुनौती देने वाली याचिकाओं की सुनवाई के दौरान की.

सुप्रीम कोर्ट का यह रुख चुनाव आयोग (ECI) की उस दलील के समर्थन में है, जिसमें आयोग ने कहा था कि आधार केवल पहचान का साधन है, नागरिकता का नहीं. कोर्ट ने वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल से कहा कि चुनाव आयोग का यह कहना सही है कि आधार को नागरिकता के निर्णायक प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता और इसकी स्वतंत्र जांच होनी चाहिए. यह फैसला ऐसे समय में आया है, जब देशभर में नागरिकता, पहचान और मतदाता सूची को लेकर बहस तेज है. कोर्ट का यह रुख भविष्य में मतदाता पहचान प्रणाली और चुनावी पारदर्शिता से जुड़े नियम-कायदों को और स्पष्ट दिशा देगा.

सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियां

जस्टिस सूर्यकांत की अगुवाई वाली पीठ ने याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल से कहा, “चुनाव आयोग सही है कि आधार को नागरिकता का ठोस सबूत नहीं माना जा सकता, इसकी जांच अनिवार्य है.” अदालत ने कहा कि पहला सवाल यह तय करना है कि क्या चुनाव आयोग के पास यह सत्यापन करने की शक्ति है या नहीं. जस्टिस सूर्यकांत ने कहा, “अगर उनके पास शक्ति नहीं है तो सब यहीं खत्म हो जाएगा, लेकिन अगर है तो फिर कोई समस्या नहीं होनी चाहिए.”

कपिल सिब्बल की दलीलें

सिब्बल ने दावा किया कि चुनाव आयोग की मौजूदा प्रक्रिया बड़ी संख्या में मतदाताओं को सूची से बाहर कर सकती है, खासकर वे जो जरूरी फार्म नहीं भर पाते. उन्होंने कहा कि 2003 की मतदाता सूची में जिनका नाम पहले से शामिल था, उनसे भी नए फार्म भरवाए जा रहे हैं, और फार्म न भरने पर नाम काट दिया जा रहा है, जबकि निवास में कोई बदलाव नहीं हुआ. सिब्बल के अनुसार, चुनाव आयोग के आंकड़े बताते हैं कि 7.24 करोड़ लोगों ने फार्म जमा किए, लेकिन फिर भी लगभग 65 लाख नाम हटा दिए गए. उनका आरोप था कि मौत या पलायन की कोई स्वतंत्र जांच किए बिना यह नाम हटाए गए हैं.

65 लाख नाम हटाने पर अदालत के सवाल

सुप्रीम कोर्ट ने पूछा कि 65 लाख का यह आंकड़ा कैसे निकाला गया और क्या यह चिंता ठोस तथ्यों पर आधारित है या केवल आशंका है. पीठ ने यह भी कहा कि जो लोग फार्म जमा कर चुके हैं, उनके नाम ड्राफ्ट रोल में पहले से शामिल हैं.

वोटर संख्या और मृत्यु के आंकड़े

सिब्बल ने कहा कि 2025 की सूची में 7.9 करोड़ मतदाता हैं, जिनमें से 4.9 करोड़ के नाम 2003 की सूची में भी थे. इसके अलावा 22 लाख लोगों को मृत के रूप में दर्ज किया गया है.

प्रशांत भूषण के आरोप

याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने आरोप लगाया कि चुनाव आयोग ने मौत या निवास परिवर्तन के कारण हटाए गए मतदाताओं की सूची अदालत या वेबसाइट पर साझा नहीं की. उनका कहना था कि आयोग दावा करता है कि उसने यह जानकारी बूथ लेवल एजेंट्स को दी है, लेकिन किसी और को देने की बाध्यता नहीं मानता.

अदालत के निर्देश

पीठ ने कहा कि यदि कोई मतदाता आधार और राशन कार्ड जैसे दस्तावेज जमा करता है तो चुनाव आयोग को उनकी जांच करनी ही होगी. अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि आयोग को यह बताना होगा कि जिन लोगों को आवश्यक दस्तावेजों की कमी के कारण नोटिस मिलना था, क्या वास्तव में उन्हें सूचित किया गया.

यह विवाद बिहार में मतदाता सूची के विशेष संक्षिप्त पुनरीक्षण से जुड़ा है, जिसमें बड़े पैमाने पर मतदाता नाम हटाने के आरोप लगाए गए हैं. याचिकाकर्ताओं का कहना है कि यह प्रक्रिया पारदर्शी नहीं है और इससे वैध मतदाताओं को भी सूची से बाहर किया जा सकता है.

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