रीढ़ की हड्डी तोड़ दी तो 28 की मौत कैसे? कश्मीर का ट्रिप, जो वापसी की गारंटी नहीं देता
मिस्टर प्राइम मिनिस्टर और होम मिनिस्टर, आप कह सकते हैं- इंसाफ होगा, आप मान सकते हैं- दुख शब्दों से परे है, पर सच्चाई ये है कि लाशें लौट आईं हैं, उम्मीदें नहीं. जब तक जमीनी हालात नहीं बदलते, तब तक वादी में जश्न की जगह सन्नाटा ही पसरा रहेगा. कश्मीर में हुए इस कत्लेआम की गूंज पूरे देश के दिल में दर्द बनकर बैठ गई है. जब तक बैसरन की चीखें सिस्टम की नींद नहीं तोड़तीं, तब तक हर वादा सिर्फ शब्द रहेगा और हर सैलानी एक निशाना.;
हां- टूट गई है कमर, उस मां की जिसके लाल पर गोली दाग दी गई. उस लड़की की जिसे जन्नत कही जाने वाली कश्मीर घाटी ने बेवा बना दिया, जो शायद यह सोचकर आई थी कि शादी के बाद पहली ट्रिप कश्मीर की करेंगे, जहां सुकून मिलेगा. उस बच्चे की जिसके सर से बाप का साया छीन लिया गया. उन फंतासियों की जो आहिस्ता-आहिस्ता फल फूल रही थीं कि वादियों का अब फेस बदल रहा है और फ़िज़ाएं भी. वो सब फ़ना हो गया.
कितनी नपी तुली दिनचर्या रही होगी उनकी जिसने रोटी कमाने के बाद कुछ बचे खुचे सिक्कों के सहारे छोटे स्विटजरलैंड जाने का ख़्वाब देखा होगा. चिलचिलाती गर्मी से कुछ वक्त के लिए राहत पाने का अरमान संजोया होगा. और फिर उसके बाद वही रोटी कमाने वाली जिंदगी का हिस्सा बन जाने का. जानिसार लंबरदारों को तनिक भी भनक ना लगी कि कुछ बड़ा होने वाला है. बैसरन में इन बेशर्म गुनहगारों के पग पड़ने के पहले भला सुरक्षा एजेंसियों की नींद में ख़लल कैसे ना पड़ा? ये कैसी चौकीदारी है? टैक्स देने वालों को अक्सर बदले में क्या यही सब नसीब होता है?
कश्मीर की कली, कायराना हमले से लहूलुहान हो गई. अब शायद अपनों को खोए उन लोगों की कभी ये आरजू ना रहे कि वो यहां आकर रंग बिरंगी वादियों का लुत्फ़ उठाए. पहलगाम से पांच किलोमीटर की दूरी पर बसी इस बसाहट पर अब सिर्फ चीत्कार है. और देश के बतौलेबाज़ों को धिक्कार. समुद्र तल से तक़रीबन 2100 मीटर की हाइट पर बसे पहलगाम में मौसम का मिजाज हमेशा ठंडा रहता है. देवदार के जंगल, लिद्दर नदी की चट्टानों से अटखेलियां करती लहरें किसी का भी मन मोहने के लिए काफ़ी हैं.
पर इन्हीं सबके बीच बैसरन में आख़िर दो हज़ार पर्यटकों को कैसे खुशियां संजोने के लिए जाने दे दिया गया? जहां एक भी सुरक्षाकर्मी ही तैनात नहीं था. ये इलाका काफी ऊंचाई पर है. वाहन भी यहां नहीं पहुंच पाते. मौजूद थे तो आर्मी की वर्दी पहने दहशतगर्द. जिन्होंने किसी का नाम पूछकर गोली बरसा दी तो किसी से कलमा पढ़ने को कहकर. खून के आंसू रुलाने वालों को पता था अप्रैल से जून तक का मौसम जवान है. जुलाई, अगस्त में अमरनाथ यात्रा भी परवान है. तो क्यों ना मौके का फ़ायदा उठाकर खून की होली खेली जाए. पीठ में मेवा था तो हाथों में बारूद का गोला. इनकी तैयारी फुल थी और हमारी गुल?
वो आंखें पथरा चुकी थीं. डर से थक चुकी थीं. जो खो गया उससे बदहवास थीं. जो बचा था उसपे क़ुर्बान थीं. तभी तो ये समझ नहीं आया और वर्दी पहने लोगों से कहने लगी कि भगवान के लिए मेरे बच्चे को कुछ मत करना. अब यही जीने का सहारा है. जो था वो लुट चुका. जो है उसे अब कुछ होने नहीं दूंगी. फ़र्क़ मिट चुका था अपनों और परायों में. फौज में और धरती के बोझ में. इंडियन आर्मी को आतंकी समझकर रोने लगे. गुहार लगाने लगे. रहम की भीख मांगने लगे, क्योंकि जो खून के आंसू रुलाकर चले गए थे उन्होंने भी इंडियन आर्मी की वर्दी डाल रखी थी.
वैली ऑफ़ शेफर्ड अब वैली ऑफ़ टेरोरिस्ट में बदल चुकी है. जब लुट चुका है, तब सबकी निगाहें पड़ीं. बात भरोसे की है. वो लौटना फिलहाल मुश्किल है. नरेंद्र मोदी जी, अमित शाह जी- आप कहते रहिये सिसकियों का इंसाफ होगा. दुःख शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकते. दौरा रद्द करिये. मीटिगों का दौर जारी रखिए. हवाई रास्ता बदलिए. अब चाहे बदलापुर बनाइये या नक़्शे का आकार बढ़ाइये. भले ही हर मस्जिद से इमाम आतंकियों के खिलाफ अब बोल रहे हों. पर कानपुर, करनाल और कर्नाटक में कोहराम मचा है. महाराष्ट्र और एमपी में मातम पसरा है.
अगर लोकल सपोर्ट टूट चुका है. भर्तियां बंद हैं तो हमले कैसे हो रहे हैं? आपने अगर रीढ़ की हड्डी तोड़ दी होती तो फिर कैसे ये सब दरिंदे घुटनों के बल लाकर और सामने वाले को ईसाई जानकर शरीर में बारूद भर रहे हैं. आप बदलापुर बनाने की बात कर रहे हों पर लकीर धुंधली पड़ चुकी है. इंटेलिजेंस तब भी फेल था और आज भी. स्लीपर सेल को सूंघने में इंटेलिजेंस नाकाम हो हुआ है. इसे मानना पड़ेगा. शटर डाउन भले ही पिछले 35 वर्षों का रिकॉर्ड तोड़ रहा है पर बाकी सूबों से सर का वास्ता टूट रहा है. सवाल उठेंगे भी और अब चुभेंगे भी. शायद ये अलफ़ाज़ कुछ अहसास बयां कर पाएं-
तोड़ कर जोड़ लो चाहे हर चीज दुनिया की,
सब कुछ काबिले मरम्मत है ऐतबार के सिवा.