गाड़ियां दीं, इस्तीफा दिया… पर मैंने नहीं भगाया, कश्मीर पंडितों पर बोले फारूक अब्दुल्ला; पहलगाम हमले पर चुप्पी क्यों?

जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला ने एक इंटरव्यू में कहा कि कश्मीरी पंडितों का पलायन उनके आदेश पर नहीं हुआ था. उन्होंने खुद के इस्तीफे को विवशता बताया और केंद्र सरकार पर सेना भेजने से इनकार का आरोप लगाया. अब्दुल्ला ने अनुच्छेद 370, पहलगाम हमला और आतंकवाद पर भी तीखी प्रतिक्रिया दी, लेकिन जिम्मेदारी से बचते नजर आए.;

Curated By :  नवनीत कुमार
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जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला ने वर्षों पुरानी एक संवेदनशील बहस को फिर से हवा दी है. उनका कहना है कि कश्मीरी पंडितों को घाटी से उन्होंने नहीं निकाला, बल्कि उस समय की अराजकता और केंद्र की नाकामी जिम्मेदार थी. अब्दुल्ला ने दावा किया कि उन्होंने पंडितों की मदद के लिए गाड़ियां मुहैया कराईं और हालात बिगड़ते देख मुख्यमंत्री पद छोड़ दिया. यह बयान एक ओर जहां आत्म-संवेदनशीलता दर्शाता है, वहीं यह भी सवाल उठता है कि क्या इतने बड़े नरसंहार के समय इस्तीफा ही पर्याप्त था?

अब्दुल्ला ने एक इंटरव्यू में दावा किया कि उनके शासन में भारत के झंडे को बचाने के लिए 1500 से अधिक लोग मारे गए, जिनमें उनके मंत्री, विधायक और कार्यकर्ता शामिल थे. उन्होंने यह भी बताया कि लोग मस्जिद से निकलते ही मारे जा रहे थे. ऐसे दावे, जहां एक ओर घाटी की हिंसक हकीकत की तस्दीक करते हैं, वहीं यह भी सवाल उठता है कि क्या यह ‘बलिदान’ उनके प्रशासन की विफलता की एक परछाईं भी नहीं थी?

इस्तीफे पर पछतावा या रणनीतिक बयान?

अब्दुल्ला ने कहा कि अगर उन्हें पहले से अंदेशा होता कि घाटी में इतना खून बहेगा, तो वे कभी इस्तीफा न देते. उन्होंने भावनात्मक लहजे में कहा, “अगर मैं दोषी हूं तो मुझे फांसी दे दो.” यह बयान सच्ची आत्मग्लानि है या राजनीतिक आत्मरक्षा, यह तय करना मुश्किल है. लेकिन इतना ज़रूर है कि पंडितों का पलायन अब भी एक ऐसा घाव है जिसे न तो इस्तीफा भर सकता है, न ही भावुक बयान.

अनुच्छेद 370: हल या भटकाव?

धारा 370 को हटाने को लेकर उन्होंने केंद्र सरकार पर तीखा सवाल उठाया. क्या वाकई इससे आतंकवाद खत्म हो गया? अब्दुल्ला का कहना है कि आतंकवाद की जड़ें कहीं गहरी हैं और महज संवैधानिक प्रावधान हटाने से हालात नहीं बदलते. यह बयान उन्हें धारा 370 के समर्थकों की आवाज़ में शामिल करता है, लेकिन साथ ही यह भी दिखाता है कि वे अब सत्ता की बजाय विपक्ष की ज़ुबान बोल रहे हैं.

पहलगाम पर चुप्पी में छिपी रणनीति?

पहलगाम हमले पर जब प्रतिक्रिया मांगी गई तो फारूक अब्दुल्ला ने खुद को अलग रखते हुए कहा कि इस पर फैसला सरकार को करना है. उनका यह तटस्थ रुख बताता है कि वे अब न तो हमलों की ज़िम्मेदारी लेना चाहते हैं, न ही रणनीतिक प्रतिक्रिया देना. एक समय घाटी के सबसे ताक़तवर नेता रहे अब्दुल्ला की यह चुप्पी कई सवाल छोड़ जाती है.

अतीत की गलियों से वर्तमान तक

फारूक अब्दुल्ला की बातें अतीत के पन्नों को एक बार फिर खोलती हैं. वह समय जब घाटी सुलग रही थी और लाखों कश्मीरी पंडित रातोंरात बेघर हो गए थे, वह आज भी भारतीय लोकतंत्र की सबसे पीड़ादायक घटनाओं में गिनी जाती है. अब्दुल्ला उस दौर के एक प्रमुख किरदार थे. आज वे खुद को पीड़ित बता रहे हैं. लेकिन सवाल अब भी वहीं है, इतिहास उन्हें दोषी मानेगा या एक लाचार मुख्यमंत्री?

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