Bahadur Shah Zafar: वो आख‍िरी मुगल बादशाह जो था बेहतरीन शायर, 1857 की क्रांति से भी रहा नाता

बहादुर शाह जफ़र ने प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 की क्रांति का दिल्ली में नेतृत्व किया था. ब्रिटिशों के आक्रमण से परेशान सैनिक और राजा महाराजा को बहादुर शाह जफ़र में एक उम्मीद दिखी थी, इसी वजह से उन्होंने क्रांति का नेतृत्व करने की बागडोर सौंपी. इस निर्णय को उन्होंने ख़ुशी ख़ुशी स्वीकार किया.;

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Curated By :  नवनीत कुमार
Updated On : 24 Oct 2024 5:01 PM IST

19 सितंबर 1857 को लाल किले के बाहर घोड़ों की टाप सुनाई दे रही थी और दरवाजे के पीछे आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर हाथ पीछे किए चिंता से इधर उधर घूम रहे थे. तभी सूचना आती है कि अंग्रेज सैनिक लाल किले को घेरने की योजना बना रहे हैं. बहादुर शाह जफर के सैनिक आकर उन्हें कहते हैं कि अंग्रेज लाल किले में प्रवेश की तैयारी कर चुके हैं और बहुत जल्द आपको गिरफ्तार करने के लिए वह मेन गेट भी तोड़ सकते हैं.

इसे सुनते ही बहादुर शाह जफर अपने परिवार के कुछ सदस्यों को साथ लेकर निकले और अजमेरी गेट के रास्ते होते हुए हुमायूं के मकबरे में शरण ली. इसके दो दिन बाद ही अंग्रेजों को बहादुर शाह के ठिकाने का पता लगा और 21 सितंबर 1857 को जफर ने कई शर्तों के बाद अंग्रेजों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया. अंग्रेजों ने इनपर मुकदमा चलाया और अपराधी घोषित कर 8 दिसंबर 1858 को रंगून जेल भेज दिया.

जेल में उनके साथ उनकी प्रिय बेगम जीनत महल और उनके दो बेटे भी थे. जेल में सभी ने चार साल में बहुत ही दयनीय जीवन बिताया. बाद में बादशाह बहादुर शाह जफर ने 7 नवंबर 1862 को जेल में ही अंतिम सांस ली। मरने से पहले उन्होंने अपनी किस्मत को कोसा और रोते हुए कहा, "जफर तुम कितने बदकिस्मत हो! तुम्हें अपनी प्यारी मातृभूमि में कब्र के लिए कम से कम दो गज जमीन भी नसीब नहीं हुई."

कौन थे बहादुर शाह जफर?

आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर का जन्म 24 अक्टूबर 1775 को हुआ था. उनके पिता अकबर शाह द्वितीय चौदहवें मुगल सम्राट थे और लाल बाई उनकी मां थीं. उन्होंने प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 की क्रांति का दिल्ली में नेतृत्व किया था. ब्रिटिशों के आक्रमण से परेशान सैनिक और राजा महाराजा को बहादुर शाह जफ़र में एक उम्मीद दिखी थी, इसी वजह से उन्होंने क्रांति का नेतृत्व करने की बागडोर सौंपी. इस निर्णय को उन्होंने ख़ुशी ख़ुशी स्वीकार किया.

बहादुर शाह ज़फ़र को आध्यात्म और सांसारिक ज्ञान के साथ मार्शल आर्ट भी बखूबी जानते थे. इसके साथ ही वह बेहतर शायर और गजल भी लिखते थे. उर्दू शायरी की दुनिया में आज भी उनका स्थान काफी ऊपर है. वह कवि हृदय थे, भाषा के जानकार और सहृदय थे. उनकी शायरी में मोहब्बत है, परेशानी है, बेचैनी है और निराशा भी है. आइए पढ़ते हैं उनके कुछ गजल और शायरी...

गजल

इश्क़ तो मुश्किल है ऐ दिल कौन कहता सहल है
लेक नादानी से अपनी तू ने समझा सहल है

गर खुले दिल की गिरह तुझ से तो हम जानें तुझे
ऐ सबा ग़ुंचे का उक़्दा खोल देना सहल है

हमदमो दिल के लगाने में कहो लगता है क्या
पर छुड़ाना इस का मुश्किल है लगाना सहल है

गरचे मुश्किल है बहुत मेरा इलाज-ए-दर्द-ए-दिल
पर जो तू चाहे तो ऐ रश्क-ए-मसीहा सहल है

है बहुत दुश्वार मरना ये सुना करते थे हम
पर जुदाई में तिरी हम ने जो देखा सहल है

शायरी

हम उनकी जुल्फ़ों को हाथों से जब संवारते हैं
तो दांतों काटते हैं, और लातों मारते हैं
न आओ ग़र नहीं आते, मगर जवाब तो दो
तुम्हारे दर पे खड़े कब से हम पुकारते हैं

कोई तो उनकी नजर में चढ़ा है जो हमको
गिराते आंख से हैं, दिल से उतारते हैं
जो तेरी चाह में डूबा वह कब उभरता है
हज़ार उसको अगर आशना उभारते हैं

'ज़फ़र' जो खींचते हैं हाथ अपना दुनिया में
हमेशा पांव वह आराम से पसारते हैं
न हम कुछ हंस के सीखे हैं, न हम कुछ रो के सीखे हैं
जो कुछ थोड़ा सा सीखे हैं, किसी के होके सीखे हैं

उनके द्वारा रंगून में लिखी गई ये पंक्तियां भी काफी मशहूर हैं. इसके कुछ अंश लाल किले में भी लिखे हुए हैं.

लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में,
किस की बनी है आलम-ए-नापायदार में।

बुलबुल को बागबां से न सैयाद से गिला,
किस्मत में कैद लिखी थी फसल-ए-बहार में।

कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें,
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में।

एक शाख गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमान,
कांटे बिछा दिए हैं दिल-ए-लाल-ए-ज़ार में।

उम्र-ए-दराज़ माँग के लाये थे चार दिन,
दो आरज़ू में कट गये, दो इन्तेज़ार में।

दिन ज़िन्दगी खत्म हुए शाम हो गई,
फैला के पांव सोएंगे कुंज-ए-मज़ार में।

कितना है बदनसीब 'ज़फर' दफ्न के लिए,
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में॥

अंग्रेजों से मिलती थी पेंशन

बहादुर शाह जफ़र ईस्ट इंडिया कंपनी के संरक्षक थे. वह अंग्रेजों की ओर से मिलने वाले एक लाख रुपये की पेंशन पर निर्भर रहते थे. अगर इसे आज के रेट के हिसाब से देखा जाए तो इसकी कीमत 1300 करोड़ रुपये होगी. हालांकि इससे पहले उनके पूर्वज शाह आलम को 26 लाख प्रतिमाह पेंशन दिया जाता था. अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई शुरू करने से पहले उन्हें सिर्फ और सिर्फ पेंशन की ही चिंता सता रही थी.

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