डिजिटल आजादी या बच्चों की सुरक्षा? ऑस्ट्रेलिया में ‘टीन सोशल मीडिया पर बैन’ ने छेड़ी वैश्विक बहस, जानें क्या कहते हैं एक्सपर्ट
डिजिटल फ्रीडम बनाम बच्चों की सुरक्षा को लेकर ऑस्ट्रेलिया की सरकार ने में टीन सोशल मीडिया बैन लगा दिया है. इस पहल ने पूरी दुनिया में नई बहस छेड़ दी है. लोग यह भी सवाल उठा रहे हैं कि भारत जैसे देश में इसे लागू करना संभव नहीं है, ऐसा इसलिए कि इसमें अकाउंट जनरेट करते वक्त बच्चा 16 साल का है या नहीं, ये सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी टेक कंपनियों सौंपी है.;
सोशल मीडिया आज अभिव्यक्ति की आजादी का सबसे बड़ा मंच है, लेकिन यह प्लेटफॉर्म बच्चों और किशोरों के लिए मानसिक दबाव, लत और साइबर खतरों का कारण भी बन गए हैं. इससे प्रभावित भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के बच्चे या फिर किशोर हैं. इस चिंता के बीच ऑस्ट्रेलिया की सरकार ने 16 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए सोशल मीडिया पर सख्ती का ऐलान कर दुनिया को चौंका दिया. अब अहम सवाल यह है कि डिजिटल आजादी पर हमला है या बच्चों की सुरक्षा के लिए जरूरी कदम? क्या ऐसा करने की जरूरत है. इसकी जगह कोई और भी विकल्प हो सकते हैं.
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सर्फिंग के आधार उम्र तय करना संभव नहीं : राजेश भारती
सोशल मीडिया और यूथ विहेवियर पैटर्न के जानकार राजेश भारती का कहना है कि ऑस्ट्रेलिया की सरकार ने 10 दिसंबर से एक एज ग्रुप तक के बच्चों के लिए सोशल मीडिया प्रतिबंध लागू किया है. इनमें 10 प्रमुख सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म शामिल हैं. यहां तक सब कुछ ठीक है, लेकिन वहां की सरकार ने उम्र तय करने की जिम्मेदारी अभिभावकों पर नहीं, बल्कि कंपनियों की जिम्मेदारी तय की है.
कंपनियां खुद उम्र कैसे तय करेगी. केवल इस अकाउंट होल्डर के सर्फिंग या सोशल बिहेवियर के आधार पर उसकी उम्र तय करना मुश्किल हो सकता है. इसे प्रभावी बनाने के लिए अभिभावकों की जिम्मेदारी तय करना भी जरूरी है.
भारत में तो ऐसा किए बगैर, टीन एज ग्रुप पर सोशल मीडिया बैन लगाना संभव नहीं हो पाएगा. जहां तक ऑस्ट्रेलिया की बात है तो वहां सिस्टम भारत से अलग है. वहां पर प्रोफेशनलिटी और सिस्टम के आधार पर तय मानकों पर लोग स्वभावत: अमल करते हैं, इसलिए हो सकता है कि वहां पर इसे लागू करना संभव हो जाए.
मनोवैज्ञानिक डॉ. सीमा शर्मा का कहना है कि ऑस्ट्रेलियाई सरकार ने जो कदम उठाए हैं, वो सही है, लेकिन इसे मॉडरेट तरीके से लागू करना होगा. अगर इसे सख्ती से लागू किया गया तो उसका इफेक्ट कई मायनों के अलग-अलग हो सकता है. दूसरी तरफ ये बात भी सही है कि तकनीक ने जो अनियंत्रित तरीके से निजी जीवन या मन मस्तिष्क पर असर डाला है, उसे नियंत्रित करना जरूरी है. ऐसा इसलिए कि अब तकनीक इंसान के नियंत्रण से बाहर हो गया है. बशर्ते कि टेक्नोलॉजी ने इंसान को नियंत्रित करना शुरू कर दिया है.
तकनीक के सामने बच्चे लाचार, कंट्रोल जरूरी - मनोविज्ञानी डॉ. सीमा शर्मा
डॉ. सीमा शर्मा का कहना है कि तकनीक के हावी होने का असर समाज पर यह हुआ कि लोग अब उसका बेहर लाभ उठा पाने में लाचार महसूस करने लगे हैं. अब तकनीकी फायदे से ज्यादा लोगों को नुकसान होने लगा है. इसे नियंत्रित करने के लिए दो जरिया हो सकता है. पहला व्यक्ति स्वयं पर लगाम लगा ले. बच्चों के मामले में अभिभावक समझदारी का परिचय दें. दूसरा यह है कि स्टेट दखल दे और जरूरी नियम तय करे. जो सोशल मीडिया कंपनियां इसका पालन न करे, उसके खिलाफ कार्रवाई हो. ताकि इंसानी हितों की रक्षा करना संभव हो सके.
उन्होंने आगे कहा कि जहां तक किशोर उम्र की बच्चों की बात है तो वह अब तकनीक का सही तरीके से लाभ उठाने में असहाय हो गए हैं. ऐसा इसलिए कि 20 साल तक के बच्चों में मस्तिष्क का विकास पूरी तरह से नहीं हो पाता है. तकनीकी नियंत्रित रूप से यूज किया जाए तो यह सहायक होगा, लेकिन अब ऐसा नहीं हो पा रहा है.
खासकर प्यूबर्टी (यौवन) की शुरुआत लड़कियों में नौ से 10 और लड़कों में 11 से 12 साल को किशोरों का प्रारंभिक चरण होता है. यह प्रक्रिया लेट 20 तक पूरा होता है. उससे पहले मस्तिष्क पूरी तरह से विकसित नहीं हो पाता है. ऐसा इसलिए कि दिमाग में प्रोटीनीकरण प्रक्रिया लेट 20 तक जारी रहता है. इस स्टेज में किशोरवय के बच्चों पर इमोशन हावी होता है. जो उन्हें पसंद है, वो सही, जो उन्हें पसंद नहीं है, उसे वह गलत मानते हैं. आज की तकनीकी मन को भरमाने वाली है, इसलिए किशोर उसके भ्रम से बचने में असहाय होते हैं.
ऑस्ट्रेलिया ने ऐसा कदम क्यों उठाया?
ऑस्ट्रेलियाई सरकार के अनुसार सोशल मीडिया की वजह से किशोरों में डिप्रेशन, एंग्जाइटी और आत्महत्या के विचार बढ़े रहे हैं. सोशल मीडिया एल्गोरिदम बच्चों को नुकसानदेह कंटेंट की ओर धकेलते हैं. माता-पिता की शिकायतें लगातार बढ़ रही थीं. इस चिंता को दूर करने के लिए टेक कंपनियां खुद से पर्याप्त सुरक्षा उपाय नहीं कर रहीं हैं. इस बात को ध्यान में रखते हुए सरकार ने यह जिम्मेदारी सीधे प्लेटफॉर्म पर डाल दी है.
टेक कंपनियों की आजादी पर लगाम क्यों?
दुनिया में ऐसा पहली बार हुआ है कि किसी देश की सरकार ने 16 साल तक के बच्चों के लिए सोशल मीडिया पर बैन लगा दिया हो. इतना ही नहीं, ऑस्ट्रेलिया की सरकार ने सोशल मीडिया कंपनियों को ही उम्र सत्यापन के लिए जिम्मेदार भी ठहराया है.
सोशल मीडिया बैन को लेकर तय मापदंडों में कहा गया है कि अब कंपनियों द्वारा यह कहना कि “हम सिर्फ प्लेटफॉर्म हैं” वाला तर्क नहीं चलेगा. यह सोशल मीडिया एल्गोरिदम और डेटा कलेक्शन पर सवाल उठाता है. इसी कारण इसे टेक इंडस्ट्री की अनियंत्रित ताकत पर पहली बड़ी लगाम कहा जा रहा है.
किन किन देशों ने दिए ऐसे संकेत?
ऑस्ट्रेलिया के फैसले के बाद कई देशों में चर्चा तेज हो गई है. UK ऑनलाइन सेफ्टी लॉ के तहत बच्चों पर कंटेंट कंट्रोल का प्रावधान है. यूरोपियन यूनियन Digital Services Act में टीन सेफ्टी पर फोकस किया गया है. अमेरिका के कुछ राज्यों में टीन सोशल मीडिया लिमिटेशन का प्रस्ताव विचाराधीन है.
फ्रांस और नॉर्वे में किशोरों के स्क्रीन टाइम और सोशल मीडिया उपयोग पर सख्त रुख अपनाने के संकेत दिए हैं. India में डिजिटल सुरक्षा कानूनों में बच्चों की ऑनलाइन सेफ्टी पर बहस जारी है. डेनमार्क से लेकर न्यूजीलैंड और मलेशिया ने ऑस्ट्रेलियाई मॉडल पर अमल के संकेत दिए हैं. ताकि यह मामला इस बात को लेकर एक टेस्ट केस बन जाए कि सरकार बोलने की आजादी या इनोवेशन को दबाए बिना एज-गेटिंग को कितनी दूर तक लागू कर सकती है.
सोशल मीडिया बैन के फायदे और खतरे
फायदे: बच्चों की मानसिक सेहत को सुरक्षा मिलेगी. साइबर बुलिंग और ऑनलाइन शोषण में कमी आएगी. माता-पिता को राहत मिलेगी.
खतरे: डिजिटल साक्षरता पर असर पड़ेगा. गलत उम्र सत्यापन से प्राइवेसी जोखिम में पड़ सकता है. टेक्नोलॉजी से बच्चों का पूर्ण कटाव हो सकता है.
दिशा तय करने वाला कदम
ऑस्ट्रेलिया का टीन सोशल मीडिया बैन सिर्फ एक राष्ट्रीय फैसला नहीं, बल्कि डिजिटल दुनिया के भविष्य की दिशा तय करने वाली बहस है. सवाल अब यह नहीं कि 'बैन सही है या गलत?' बल्कि यह है कि बच्चों की सुरक्षा और डिजिटल आजादी के बीच संतुलन कैसे बनाया जाए?
बता दें कि 16 साल तक के बच्चों के लिए सोशल मीडिया पर बैन लगाने के मामले में ऑस्ट्रेलिया में दुनिया का पहला देश बन गया है. वहां के प्रधान मंत्री एंथनी अल्बनीस ने इसे परिवारों के लिए "एक गर्व का दिन" बताया. उन्होंने कहा कि यह कानून इस बात का सबूत है कि पॉलिसी बनाने वाले ऑनलाइन नुकसान को रोक सकते हैं, जो पारंपरिक सुरक्षा उपायों से आगे निकल गए हैं.
उन्होंने कहा है कि, "यह वह दिन है जब ऑस्ट्रेलियाई परिवार इन बड़ी टेक कंपनियों से अपनी शक्ति वापस ले रहे हैं. नई टेक्नोलॉजी अद्भुत चीजें कर सकती है, लेकिन हमें यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि इंसान अपने भाग्य पर खुद नियंत्रण रखें और यह सब इसी बारे में है."
क्या कहती हैं कंपनियां?
दूसरी तरफ डिजिटल आजादी के पैरोकार प्रमुख टेक्नोलॉजी कंपनियों और बोलने की आजादी के समर्थकों ने इस कानून की आलोचना की है, लेकिन माता-पिता और बाल अधिवक्ताओं ने इसका स्वागत किया है. सोशल मीडिया कंपनियों का कहना है कि वह नियमों के मुताबिक उम्र का अंदाजा लगाने के लिए कई तरीकों का इस्तेमाल करेंगे. जैसे यूजर के व्यवहार से उनकी उम्र का अंदाजा लगाना और सेल्फी के आधार पर उम्र का अंदाजा लगाना, साथ ही ऐसे चेक भी करेंगे जिनमें अपलोड किए गए पहचान दस्तावेज या लिंक्ड बैंक अकाउंट की जानकारी शामिल हो सकती है, के आधार पर उम्र तय करना मुश्किल होगा.
इस मामले में मेटा का कहना है कि ऑस्ट्रेलिया किशोरों को 'कम रेगुलेटेड' प्लेटफॉर्म पर धकेल रहा है. स्टडीज से पता चलता है कि सोशल मीडिया बिजनेस के लिए यह लागू करना स्ट्रक्चरल ठहराव का एक नया दौर है. यूजर की संख्या स्थिर हो गई है और प्लेटफॉर्म पर बिताया जाने वाला समय कम हो गया है. कुछ युवाओं ने चेतावनी दी है कि सोशल मीडिया बैन लोगों को अलग-थलग कर सकता है.
बैन लगाने वाला ऑस्ट्रेलिया पहला देश
ऑस्ट्रेलिया बुधवार (10 दिसंबर, 2025) से 16 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए सोशल मीडिया बैन करने वाला पहला देश बन गया है. टिक टॉक, अल्फाबेट के यूट्यूब और मेटा के इंस्टाग्राम और फेसबुक जैसे 10 प्लेटफॉर्म तक पहुंच ब्लॉक हो गई है. ऑस्ट्रेलिया सरकार की ओर से जारी आदेश में कहा गया है कि नए कानून के तहत इसके उल्लंघनकर्ता प्लेटफॉर्म को A$49.5 मिलियन ($33 मिलियन) तक का जुर्माना देना होगा. ऑस्ट्रेलियाई सरकार की एक रिपोर्ट के अनुसार आठ से 15 साल के 86% ऑस्ट्रेलियाई सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते थे.