अमेरिकी दे रहे ट्रंप को धोखा! भारत से ट्रेड के लिए अपना रहे सिंगापुर रूट, जानें बाजार में कैसे पहुंच रहा पानीपत का माल
अमेरिका द्वारा भारतीय उत्पादों पर 50% टैरिफ लगाने से पानीपत की टेक्सटाइल इंडस्ट्री पर संकट गहराया है. अब अमेरिकी खरीदार और भारतीय निर्यातक सिंगापुर के रास्ते नया तोड़ निकाल रहे हैं. यहां से "Made in Singapore" टैग के साथ माल सिर्फ 20% टैरिफ में अमेरिका पहुंच जाएगा. यह रणनीति पानीपत के 8,000 करोड़ के कारोबार को बचाने की कोशिश मानी जा रही है.;
ट्रंप प्रशासन ने हाल ही में भारतीय उत्पादों पर 50% तक का टैरिफ लगाकर भारत-अमेरिका व्यापारिक रिश्तों में भूचाल ला दिया है. खासकर पानीपत की टेक्सटाइल इंडस्ट्री, जो अमेरिका को सबसे बड़ा निर्यातक केंद्र मानती है, इस फैसले से बुरी तरह प्रभावित हुई है. अब तक करीब 60% निर्यात अमेरिका को होता था, जिसकी सालाना वैल्यू लगभग 8,000 करोड़ रुपए है. लेकिन नए टैरिफ से भारतीय माल अमेरिकी बाजार में महंगा पड़ने लगा है और खरीदारों ने ऑर्डर रोकना शुरू कर दिया है.
भारी टैरिफ से बचने के लिए अमेरिकी खरीदारों और भारतीय निर्यातकों ने मिलकर सिंगापुर को एक वैकल्पिक केंद्र के रूप में चुना है. एशिया-प्रशांत क्षेत्र का प्रमुख बिजनेस हब होने के कारण यहां से अमेरिका को जाने वाले माल पर केवल 10% टैरिफ देना पड़ता है. इस व्यवस्था में पानीपत का माल पहले सिंगापुर भेजा जाएगा, जहां से "Made in Singapore" टैग लगाकर उसे अमेरिका एक्सपोर्ट किया जाएगा. इससे टैरिफ का बोझ घटकर 20% तक ही रह जाएगा.
सिंगापुर में खुल रहे ब्रांच ऑफिस
अमेरिकी कंपनियां अब सिंगापुर के सेंट्रल बिज़नेस डिस्ट्रिक्ट में शाखाएं खोल रही हैं. इन शाखाओं का काम होगा- पानीपत से आने वाले माल को अपने नाम से बिल बनाना और फिर अमेरिका भेजना. हरियाणा चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री के चेयरमैन विनोद धमीजा के अनुसार, यह व्यवस्था फिलहाल उन्हीं बड़े उद्योगपतियों और निर्यातकों के लिए कारगर है, जिनका कारोबार हर महीने 100 करोड़ रुपए से ज्यादा है. छोटे और मझोले उद्यमी अभी इस मॉडल को अपनाने में सक्षम नहीं हैं.
पानीपत के प्रमुख निर्यात उत्पाद
पानीपत को भारत का "मैनचेस्टर ऑफ हैंडलूम" कहा जाता है. यहां से अमेरिका को बाथमेट, शावर कर्टन, कुशन कवर, थ्रो, दरी, जूट बास्केट और पुफ जैसे होम फर्निशिंग उत्पाद बड़े पैमाने पर भेजे जाते हैं. ये वही उत्पाद हैं जिन्हें चीन, बांग्लादेश, वियतनाम, तुर्की और पाकिस्तान भी बनाते हैं. फर्क सिर्फ इतना है कि इन देशों के माल पर अमेरिका ने 20% से 35% के बीच ही टैरिफ लगाया है, जबकि भारत से जाने वाले उत्पादों पर 50%. यही असमानता भारत के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन गई है.
टैरिफ से बिजनेसमैन की उड़ी नींद
इस टैरिफ अंतर ने पानीपत के उद्योगपतियों की नींद उड़ा दी है. बड़े ऑर्डर कैंसिल हो रहे हैं और कई फैक्ट्रियों को उत्पादन घटाना पड़ा है. निर्यातकों का कहना है कि अगर जल्द समाधान नहीं मिला तो हजारों मजदूरों की नौकरियों पर खतरा मंडरा सकता है. वहीं, अमेरिकी रिटेलर्स को भी महंगे दामों पर उत्पाद बेचने की मजबूरी होगी, जिससे उनकी बिक्री घट सकती है. यही कारण है कि अमेरिकी खरीदार खुद भी इस संकट का हल ढूंढने में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं.
सिंगापुर क्यों बन रहा मीडिएटर?
सिंगापुर का चयन महज एक संयोग नहीं है, बल्कि इसके पीछे ठोस आर्थिक तर्क है. यह देश न केवल कम टैरिफ का लाभ देता है, बल्कि एशियाई व्यापार के लिए सुविधाजनक लॉजिस्टिक्स और ग्लोबल फाइनेंसिंग सिस्टम भी उपलब्ध कराता है. यहां से माल को अमेरिका तक भेजना आसान है और अमेरिकी प्रशासन ने अभी तक यहां से होने वाले "री-एक्सपोर्ट" पर कोई सख्त निगरानी नहीं लगाई है. यही कारण है कि खरीदार और निर्यातक इसे एक व्यवहारिक विकल्प मान रहे हैं.
अमेरिका को पता चला तो क्या होगा?
हालांकि यह रास्ता फिलहाल सुरक्षित नजर आता है, लेकिन इसमें भी खतरे हैं. अगर अमेरिकी प्रशासन को यह मालूम पड़ गया कि भारतीय उत्पादों को केवल टैरिफ से बचने के लिए "सिंगापुर के नाम" से री-एक्सपोर्ट किया जा रहा है, तो वह इस रूट पर भी सख्ती कर सकता है. इसके अलावा, छोटे उद्योगपतियों के लिए इस मॉडल को अपनाना महंगा और जटिल साबित हो सकता है. विशेषज्ञों का कहना है कि यह उपाय अल्पकालिक राहत तो दे सकता है, लेकिन दीर्घकाल में भारत को अपने व्यापारिक रिश्तों में संतुलन लाना ही होगा.
और क्या है ऑप्शन?
सिंगापुर के अलावा बांग्लादेश, वियतनाम और जर्मनी जैसे देश भी भारतीय निर्यातकों की रणनीति में शामिल हैं. अमेरिकी खरीदार भी इन देशों को बैकअप सोर्स के रूप में देख रहे हैं. अगर भारत सरकार कूटनीतिक स्तर पर कोई हल नहीं निकालती, तो यह जोखिम है कि अमेरिका में भारतीय हिस्सेदारी कम हो जाएगी और प्रतिस्पर्धी देशों के उत्पाद बाजार पर हावी हो जाएंगे. फिलहाल सभी की निगाहें इस पर टिकी हैं कि वॉशिंगटन और नई दिल्ली के बीच आगे क्या बातचीत होती है.