किसने किया पहला पिंडदान? गरुड़ पुराण में मिलता है महाभारत का ये प्रसंग

इस सवाल का जवाब गरुड़ पुराण ने महाभारत के एक प्रसंग का हवाला देते हुए दिया है. इसमें बताया है कि वाणों की सैय्या पर लेटे पितामह भीष्म ने युधिष्ठिर को दिए अंतिम उपदेश में श्राद्ध के महत्व का जिक्र करते हुए बताया है कि यह परंपरा कैसे शुरू हुई.;

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By :  स्टेट मिरर डेस्क
Updated On : 12 Dec 2025 3:51 PM IST

सबके मन में अक्सर खासतौर पर पितृपक्ष के समय यह सवाल उठता ही है कि श्राद्ध की परंपरा कहां से शुरू हुई और पहला श्राद्ध किसने किया. इस सवाल का जवाब भी गरुड़ पुराण में मिलता है. गरुड़ पुराण में महाभारत के एक प्रसंग का हवाला देते हुए कहा गया है कि महर्षि निमि ने पहला श्राद्ध किया था. उसके बाद अन्य ऋषियों ने इस परंपरा को अपनाया. फिर ऋषियों के जरिए राजाओं तक और राजाओं को देख आम लोगों ने पितरों का श्राद्ध करना शुरू कर दिया. गरुड़ पुराण ने यह प्रसंग महाभारत के उस हिस्से से लिया है, जिसमें युद्ध समाप्त होने के बाद युधिष्ठिर भगवान कृष्ण, अपने भाइयों और परिवार के अन्य लोगों के साथ पितामह भीष्म के अंतिम दर्शन के लिए गए थे.

उस समय भगवान कृष्ण के कहने पर पितामह भीष्म ने युधिष्ठिर को राजधर्म और परिवार धर्म का पाठ पढ़ाया. इसी दौरान भीष्म ने पितृपक्ष में श्राद्ध का महत्व बताते हुए इस परंपरा को जारी रखने का उपदेश किया था. उस समय युधिष्ठिर ने भी यही सवाल किया था कि श्राद्ध की परंपरा कहां से शुरू हुई. इसके जवाब में भीष्म ने बताया कि इस पंरपरा को शुरू कराने का श्रेय अत्रि मुनि को जाता है. उन्होंने ही सबसे पहले श्राद्ध के बारे में महर्षि निमि जो जैन धर्म के 22वें तीर्थंकर थे, को ज्ञान दिया. इसके बाद महर्षि निमि ने अकाल मौत के शिकार हुए अपने पुत्र को पहला पिंडदान किया. इस दौरान उन्होंने अपने सभी पूर्वजों का भी आह्वान किया तो सभी प्रकट हुए और कहा कि उनका पुत्र पितृलोक में स्थान पा चुका है.

पितरों के प्रति श्रद्धा प्रकट करने की परंपरा 

निमि द्वारा किए गए पिंडदान और इसके प्रभाव को देखकर बाकी ऋषियों ने भी श्राद्ध करना शुरू कर दिया. देखते ही देखते इस व्यवस्था को राजाओं ने अपनाया और फिर राजाओं से आम जनता तक पहुंचकर यह व्यवस्था परंपरा बन गई. उसके बाद से पीढ़ी दर पीढ़ी लोग इस परंपरा को निभाते चले आ रहे हैं. इस परंपरा को शुरू करने का मुख्य उद्देश्य लोगों में अपने पितरों के प्रति आदर का भाव प्रकट करना है. इस परंपरा का पूरा विधान भी गरुड़ पुराण समेत कई अन्य पौराणिक ग्रंथों में मिलता है. 

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