'सबका साथ, सबका विकास' में कहां खड़े हैं मुसलमान? नई रिपोर्ट में ये बात आई सामने

भारत में मुस्लिम समुदाय की सामाजिक और आर्थिक स्थिति पर केंद्रित नई रिपोर्ट शिक्षा, रोजगार और सरकारी नीतियों के प्रभाव का विश्लेषण करती है. रिपोर्ट यह बताती है कि नीतिगत बदलावों के बावजूद मुसलमानों की भागीदारी सीमित रही है. रिपोर्ट में समावेशी नीति, ओबीसी पुनर्गठन, आरक्षण समीक्षा और निजी क्षेत्र की भागीदारी जैसी सिफारिशें दी गई हैं.;

Edited By :  नवनीत कुमार
Updated On : 13 March 2025 11:25 AM IST

भारत में मुस्लिम समुदाय की सामाजिक और आर्थिक स्थिति के व्यापक विश्लेषण पर एक रिपोर्ट आई है. 'समकालीन भारत में मुसलमानों के लिए सकारात्मक कार्रवाई पर पुनर्विचार' नामक इस रिपोर्ट में उनके सशक्तिकरण और सकारात्मक कार्रवाई की आवश्यकता पर जोर दिया गया है. रिपोर्ट बताती है कि पिछले कुछ दशकों में सरकारों द्वारा कई नीतिगत कदम उठाए गए, लेकिन उनका प्रभाव सीमित रहा.

रिपोर्ट के अनुसार, सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्रा आयोग ने मुसलमानों को पिछड़े समुदाय के रूप में मान्यता देने की सिफारिश की थी. इसके बाद यूपीए सरकार ने अल्पसंख्यक समुदायों के उत्थान के लिए प्रधानमंत्री का 15-सूत्रीय कार्यक्रम लागू किया. हालांकि, 2014 के बाद भाजपा सरकार ने 'सबका साथ, सबका विकास' नीति को अपनाया, लेकिन मुस्लिम समुदाय के लिए विशेष योजनाएं प्राथमिकता में नहीं रहीं.

मुस्लिम समुदाय को कितना मिला लाभ?

रिपोर्ट बताती है कि सरकार की नीतियां मुस्लिम समुदाय पर किस प्रकार प्रभाव डाल रही हैं. इसमें सरकारी दस्तावेजों का अध्ययन कर यह दिखाया गया है कि कल्याणकारी योजनाओं में मुस्लिम समुदाय को कितना लाभ मिला है. इसके अलावा, यह भी बताया गया है कि शिक्षा और नौकरियों में मुस्लिम समुदाय अन्य पिछड़े वर्गों की तुलना में कहां खड़ा है.

शिक्षा की क्या है स्थिति?

शिक्षा के क्षेत्र में मुसलमानों की स्थिति चिंताजनक बनी हुई है. स्कूल स्तर पर उनकी भागीदारी बढ़ी है, लेकिन उच्च शिक्षा में उनकी भागीदारी अब भी सबसे कम है. इसके अलावा, व्यावसायिक और तकनीकी पाठ्यक्रमों में मुस्लिम छात्रों की भागीदारी अन्य समुदायों की तुलना में काफी कम है, जो उनके करियर की संभावनाओं को सीमित करता है.

रोजगार में नहीं है बेहतर स्थिति

रिपोर्ट बताती है कि रोजगार के क्षेत्र में भी मुसलमानों की स्थिति बेहतर नहीं हुई है. नियमित वेतन वाली नौकरियों तक उनकी पहुंच सीमित है और सफेदपोश नौकरियों में उनकी भागीदारी हिंदू उच्च जातियों की तुलना में काफी कम है. इसके अलावा, स्वरोजगार और छोटे व्यवसायों में उनकी अधिक हिस्सेदारी है, लेकिन सरकारी समर्थन की कमी उनके आर्थिक सशक्तिकरण में बाधा बनी हुई है.

आरक्षण का दिया गया सुझाव

रिपोर्ट में मुसलमानों के सशक्तिकरण के लिए कुछ ठोस सुझाव दिए गए हैं. इसमें ओबीसी श्रेणी का धर्मनिरपेक्ष पुनर्गठन, दलित मुस्लिमों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने और 50% आरक्षण की सीमा पर पुनर्विचार करने की सिफारिश की गई है. इसके अलावा, अल्पसंख्यक बहुल जिलों में विशेष योजनाएं लागू करने और मुस्लिम बहुल व्यवसायों को सरकारी सहायता देने पर भी जोर दिया गया है.

बेहतर के लिए क्या है उपाय?

सामुदायिक सशक्तिकरण के लिए रिपोर्ट में निजी क्षेत्र की भागीदारी की आवश्यकता बताई गई है. इसके तहत मुस्लिम संगठनों, धर्मार्थ संस्थानों और स्वयं सहायता समूहों की क्षमता बढ़ाने की सिफारिश की गई है, ताकि वे सरकारी कल्याणकारी योजनाओं का अधिक लाभ उठा सकें. इस रिपोर्ट का निष्कर्ष यही है कि मुसलमानों की स्थिति सुधारने के लिए सरकार को एक समावेशी नीति अपनानी होगी. शिक्षा, रोजगार और सामाजिक कल्याण की योजनाओं को इस तरह से लागू करना होगा कि वे मुस्लिम समुदाय के उत्थान में प्रभावी साबित हो सकें. इसके लिए सरकारी और गैर-सरकारी संस्थानों को मिलकर काम करना होगा, ताकि भारत में मुसलमानों को बराबरी का दर्जा मिल सके.

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