क्‍या था अंग्रेजों का डिवाइड एंड रूल, 'बंटेंगे तो कटेंगे' पर बार-बार क्‍यों आ रही इसकी याद?

'बंटेंगे तो कटेंगे' नारा यूपी उपचुनाव के साथ झारखंड और महाराष्ट्र की सियासी फिजा में जोरशोर से गूंज रहा है. बीजेपी इस नैरेटिव को सेट कर जातियों में बिखरे हुए हिंदुओं को एकजुट करने की कवायद कर रही है. लेकिन अखिलेश यादव, हेमंत सोरेन, राहुल गांधी, मल्लिकार्जुन खरगे और महाराष्ट्र के बीजेपी नेताओं और सहयोगी को पसंद नहीं आ रहा है.;

Curated By :  नवनीत कुमार
Updated On : 16 Nov 2024 5:28 PM IST

हरियाणा में विधानसभा चुनाव होने वाला था. सभी पार्टी के फायर ब्रांड नेता चुनावी सभा को संबोधित कर एक दूसरे पर तंज कस रहे थे. फिर एक दिन उत्तर प्रदेश के सीएम योगी आदित्यनाथ ने एक सभा में बांग्लादेश के संदर्भ में 'बंटेंगे तो कटेंगे' का नारा दिया. ये नारा हरियाणा चुनाव में बीजेपी के लिए हिट रहा. अब हरियाणा में सीएम सैनी की सरकार बन चुकी है लेकिन ये नारा अभी भी चल रहा है.

'बंटेंगे तो कटेंगे' नारा यूपी उपचुनाव के साथ झारखंड और महाराष्ट्र की सियासी फिजा में जोरशोर से गूंज रहा है. बीजेपी इस नैरेटिव को सेट कर जातियों में बिखरे हुए हिंदुओं को एकजुट करने की कवायद कर रही है. लेकिन अखिलेश यादव, हेमंत सोरेन, राहुल गांधी, मल्लिकार्जुन खरगे और महाराष्ट्र के बीजेपी नेताओं और सहयोगी को पसंद नहीं आ रहा है. अब बंटेंगे तो कटेंगे वाले बयान से सहयोगी दलों ने किनारा करना शुरू कर दिया है. अजित पवार से लेकर पंकजा मुंडे तक अपनी नाराजगी जाहिर कर चुके हैं.

अब इस बयान की चर्चा इतनी होने लगी है कि हर पार्टी बहती गंगा में हाथ धोने लगी. बीजेपी के नेता हर भाषण में इस बात को कहते नजर आए. पीएम मोदी, योगी आदित्यनाथ, अमित शाह, हिमन्त बिश्व शर्मा, देवेंद्र फडणवीस के भाषणों में इसका जिक्र सुनने को मिला. वहीं, इस बयान के बाद उत्तर प्रदेश में पोस्टर वॉर शुरू हो गया. समाजवादी पार्टी ने 'सत्ता के सत्ताईश', 'न कटेंगे न बंटेंगे' से लेकर कई स्लोगन के साथ पोस्टर चिपकाए. वहीं, बीजेपी ने भी 'सत्ताईश के खेवनहार' जैसे पोस्टर चपकाए.

अब 'बंटेंगे तो कटेंगे' नारे के साथ अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति को जोड़कर देखा जा रहा है. सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने कहा कि बीजेपी सरकार जा रही, इसीलिए घबराकर ये नारा दे रहे हैं. ये नारा इन्होंने अंग्रेजों से सीखा है. अंग्रेज तो चले गए. लेकिन, उनके वचनवंशी और विचारवंशी अभी भी हमारे बीच में हैं. इस बयान के बाद अंग्रेजों का 'डिवाइड एंड रूल' याद आ गया. 

क्या थी 'डिवाइड एंड रूल' नीति?

अंग्रेजों की 'डिवाइड एंड रूल' नीति भारत में उनकी उपनिवेशी सत्ता को मजबूत करने और लंबे समय तक बनाए रखने का एक मुख्य तरीका थी. इसका मुख्य उद्देश्य भारतीय समाज को धार्मिक, जातीय, सामाजिक और क्षेत्रीय आधार पर विभाजित करना था ताकि भारत के लोग एकजुट होकर ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ खड़े न हो सकें. इसके माध्यम से अंग्रेजों ने भारत जैसे विशाल और विविध सांस्कृतिक देश को नियंत्रित किया. इस नीति ने भारतीय समाज में गहरी दरारें पैदा कीं, जिनका प्रभाव आज भी देखने को मिलता है.

कब हुई थी शुरुआत?

अंग्रेजों की 'डिवाइड एंड रूल' नीति की शुरुआत 1857 के विद्रोह के बाद स्पष्ट रूप से देखने को मिली. इस विद्रोह में सभी धर्म के लोगों ने एकजुट होकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी. उस वक्त हिन्दू और मुस्लिम रियासतें ज्यादा थीं तो हिंदू और मुस्लिम सिपाहियों ने अंग्रेजों का काफी नुकसान किया था. इसके बाद अंग्रेजों ने महसूस किया कि यदि भारतीय समाज एकजुट रहा, तो उनके लिए भारत पर शासन करना असंभव होगा.

अब अंग्रेजों ने हिंदुओं और मुसलमानों के बीच दरार डालने के लिए नई नीतियां अपनाईं. मुस्लिम समुदाय को यह विश्वास दिलाने की कोशिश की गई कि 1857 के विद्रोह में उनकी हार के लिए हिंदू जिम्मेदार हैं. अंग्रेजों ने भारतीय समाज की जातीय और धार्मिक विविधता का इस्तेमाल कर उनके बीच अविश्वास बढ़ाने की कोशिश की. उन्होंने राज्यों, रियासतों और क्षेत्रों के शासकों को आपस में भिड़ाने की कोशिश की. 1858 के बाद अंग्रेजों ने 'डिवाइड एंड रूल' की रणनीति को व्यवस्थित तरीके से लागू करना शुरू किया.

बाद में चलकर ये दरार इतनी गहराती गई कि दोनों समुदाय अलग-अलग बंट गए और अपने हक़ की मांग करने लगे. विवाद बढ़ने के बाद लॉर्ड कर्ज़न ने 1905 में बंगाल का विभाजन किया. इसमें बंगाल को धार्मिक आधार पर दो हिस्सों में बांटा गया. पूर्वी बंगाल (मुस्लिम बहुसंख्यक) और पश्चिमी बंगाल (हिंदू बहुसंख्यक). इसने एक सांप्रदायिक तनाव को बढ़ावा दिया. उन्होंने भारतीय नेताओं और राजनीतिक संगठनों के बीच फूट डालने के प्रयास किए.

मुस्लिम लीग की स्थापना

अब साल 1906 में अंग्रेजों ने मुस्लिम समुदाय को अलग राजनीतिक पहचान देने के लिए 'मुस्लिम लीग' की स्थापना का समर्थन किया. यह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के खिलाफ एक संतुलन बनाने का प्रयास था. अंग्रेजों ने 1919 में भारतीय समाज में सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व का आधार तैयार किया, जहां मुसलमानों को अलग निर्वाचन क्षेत्रों का अधिकार दिया गया.

...और बन गया पाकिस्तान

अंग्रेजों ने भारतीय समाज में लंबे समय तक सांप्रदायिकता और विभाजन का बीज बो दिया. इसकी वजह से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी कई बार परेशानी आईं, क्योंकि सभी समूहों को एक मंच पर लाना मुश्किल हो गया था. अंग्रेजों की यह नीति लंबे समय तक उनके शासन को बनाए रखने में सफल रही. लेकिन भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं ने इस नीति को चुनौती दी और लोगों को एकजुट करने की कोशिश की. हालांकि कुछ नेताओं और दलों ने नफरत की आग को सीने में जलाए रखा. आखिकार 1947 में देश के दो टुकड़े हो गए. मुस्लिम लीग की मांग पर अलग देश पाकिस्तान बना.

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