बेटे से छीना अंतिम संस्कार का हक़, इमरजेंसी में इंदिरा का विरोध; कहानी केंद्रीय मंत्री की दादी विजयराजे सिंधिया की
विजयराजे सिंधिया ने महिलाओं की शिक्षा और सशक्तिकरण पर भी विशेष जोर दिया. वे महिलाओं को राजनीति में आने के लिए प्रोत्साहित करती थीं और उनकी समस्याओं को प्रमुखता से उठाती थीं. उनके इस दृष्टिकोण ने उन्हें महिलाओं के बीच एक आदर्श बना दिया. उनके जीवन के कई प्रेरणादायक और रोचक किस्से हैं. आइये जानते हैं उनके कुछ चुनिंदा किस्से;
विजयराजे सिंधिया भारतीय राजनीति की एक महत्वपूर्ण हस्ती थीं. वे ग्वालियर की राजमाता और भारतीय जनसंघ (बाद में भाजपा) की वरिष्ठ नेता थीं. विजयराजे सिंधिया का जीवन त्याग, संघर्ष, और जनता की सेवा के लिए प्रेरणा देता है. उनकी कहानी भारतीय राजनीति के स्वर्णिम अध्यायों में से एक है. परिवार की लड़ाई से लेकर इमरजेंसी के समय जेल जाने के समय भी वह दृढ़ता से डटी रहीं.
विजयराजे सिंधिया ने महिलाओं की शिक्षा और सशक्तिकरण पर भी विशेष जोर दिया. वे महिलाओं को राजनीति में आने के लिए प्रोत्साहित करती थीं और उनकी समस्याओं को प्रमुखता से उठाती थीं. उनके इस दृष्टिकोण ने उन्हें महिलाओं के बीच एक आदर्श बना दिया. उनके जीवन के कई प्रेरणादायक और रोचक किस्से हैं. आइये जानते हैं उनके कुछ चुनिंदा किस्से
राजनीति में आने का निर्णय
विजयराजे सिंधिया, जो ग्वालियर राजघराने की महारानी थीं. उन्होंने अपने वैभवपूर्ण जीवन को छोड़कर राजनीति में कदम रखा. उनके इस निर्णय के पीछे 1957 में उनके पति, जीवाजी राव सिंधिया की मृत्यु के बाद ग्वालियर राज्य की ज़िम्मेदारी संभालने की भावना थी. उन्होंने जनता की सेवा को अपनी प्राथमिकता बनाया और भारतीय जनसंघ में शामिल होकर अपने राजनीतिक सफर की शुरुआत की. यह कदम उनके समर्पण और साहस का प्रतीक बना.
आम लोगों के साथ संबंध
राजघराने की महारानी होने के बावजूद, राजनीति में आने के बाद विजयराजे सिंधिया ने शाही परिधान छोड़ दिए और साड़ी में दिखने लगीं. उनका पहनावा साधारण लेकिन गरिमामयी था. यह बदलाव जनता के साथ उनकी जुड़ाव और विनम्रता का प्रतीक बन गया. राजमाता होते हुए भी विजयराजे सिंधिया ने हमेशा खुद को आम जनता के करीब रखा. वे अक्सर ग्रामीण इलाकों में जाती थीं, किसानों और गरीबों की समस्याओं को सुनती थीं. उनके इस सादगीपूर्ण व्यवहार ने उन्हें 'जनता की रानी' बना दिया.
संपत्ति छोड़ने की कहानी
जब विजयराजे सिंधिया ने राजनीति में कदम रखा, तो उन्होंने ग्वालियर राजघराने की संपत्ति को सार्वजनिक उपयोग के लिए समर्पित कर दिया. उन्होंने अपने ग्वालियर के जयविलास पैलेस का एक बड़ा हिस्सा सार्वजनिक संग्रहालय के रूप में परिवर्तित कर दिया. इस निर्णय ने उन्हें आम जनता के करीब ला दिया और दिखाया कि वे राजनीति को सेवा का माध्यम मानती थीं, न कि व्यक्तिगत लाभ का. यह निर्णय उनकी समाजसेवा और जनता के प्रति उनकी निष्ठा को दर्शाता है.
सत्याग्रह और जेल यात्रा
आपातकाल (1975-1977) के दौरान विजयराजे सिंधिया ने इंदिरा गांधी सरकार की नीतियों के खिलाफ आवाज उठाई. विजयराजे सिंधिया सबसे मुखर नेताओं में से एक थीं. उन्होंने विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लिया, जिसके कारण उन्हें जेल भी जाना पड़ा. जेल में रहते हुए उन्होंने कठिन परिस्थितियों का सामना किया, लेकिन उनके साहस और संघर्ष ने उन्हें भारतीय राजनीति में एक मजबूत स्तंभ के रूप में स्थापित किया. यह उनके साहसी और निडर व्यक्तित्व को दर्शाता है.
परिवार के खिलाफ भी सख्त रुख
विजयाराजे सिंधिया और उनके बेटे माधवराव सिंधिया के बीच विवाद भारतीय राजनीति में एक चर्चित विषय रहा. यह विवाद मुख्य रूप से उनकी राजनीतिक विचारधाराओं और पार्टी निष्ठा से जुड़ा था. माधवराव कांग्रेस में थे, जबकि उनकी मां भारतीय जनसंघ (बाद में भाजपा) से जुड़ी रहीं. 1984 में गुना लोकसभा सीट पर चुनाव लड़ने के दौरान यह मतभेद खुलकर सामने आया. दोनों के बीच वैचारिक असहमति इतनी गहरी थी कि उनके रिश्तों में दूरी आ गई. हालांकि, माधवराव ने हमेशा अपनी मां के प्रति सम्मान बनाए रखा, लेकिन उनका यह पारिवारिक और राजनीतिक टकराव लंबे समय तक चर्चा का विषय बना रहा.
बेटे से छीना था अंतिम संस्कार का हक़
माधवराव सिंधिया की जीवनी में वीर सांघवी लिखते हैं, "राजमाता की वसीयत पर दो गवाहों प्रेमा वासुदेवन और एस. गुरुमूर्ति के हस्ताक्षर थे. वसीयत में माधवराव के बारे में लिखा गया था कि वे न केवल अपने राजनीतिक आकाओं के गुलाम बन गए हैं, बल्कि उन्होंने मुझे और मेरे समर्थकों को परेशान करने में उनके औजार की भूमिका निभाई." राजमाता ने यहां तक लिखा था कि माधवराव अब इस योग्य भी नहीं हैं कि वे अपनी मां का अंतिम संस्कार करें. हालांकि, 2001 में राजमाता के निधन के बाद, उनके बेटे माधवराव सिंधिया ने ही उनकी चिता को मुखाग्नि दी.
अपनी पार्टी के सिद्धांतों के लिए दृढ़ता
1971 में, जब कांग्रेस ने प्रिवी पर्स (राजघरानों को मिलने वाली आर्थिक सहायता) को समाप्त करने का निर्णय लिया, तो यह राजघरानों के लिए बड़ा झटका था. हालांकि, विजयराजे ने अपने व्यक्तिगत नुकसान को दरकिनार करते हुए भारतीय जनसंघ के साथ खड़ी रहीं. उन्होंने अपने राजसी अधिकारों से अधिक अपने राजनीतिक आदर्शों को प्राथमिकता दी.
ग्वालियर के किसानों के लिए संघर्ष
ग्वालियर के ग्रामीण इलाकों में किसानों और गरीबों की समस्याओं को लेकर विजयराजे सिंधिया ने हमेशा आवाज उठाई. एक बार उन्होंने ग्वालियर के एक गांव में पानी की समस्या को लेकर धरना दिया और अधिकारियों को मजबूर किया कि वे तुरंत समाधान करें. उनकी सक्रियता और संवेदनशीलता ने उन्हें "किसानों की रानी" के रूप में लोकप्रिय बनाया. उन्होंने ग्वालियर और आसपास के क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं को बेहतर बनाने के लिए कई प्रयास किए. उनके नेतृत्व में कई अस्पताल और स्वास्थ्य केंद्र स्थापित किए गए. वे खुद लोगों से मिलकर उनकी समस्याओं को सुनती थीं और तत्काल मदद करती थीं.