पहले खुद अश्लील VIDEO में कंटेंट कंफर्म करें फिर सुनाएं फैसला... केरल HC ने कैसेट बेचने वाले आरोपी की रद्द की सजा

Kerala High Court: कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि अश्लील वीडियो से जुड़े आरोपों में ट्रायल कोर्ट बिना वीडियो देखे और जांच की उसे सबूत न माने. जब वह खुद कंफर्ण न कर लें कि कंटेंट सच में आपत्तिजनक है या नहीं. कोर्ट ने आरोपी की सजा रद्द कर दी.;

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Edited By :  निशा श्रीवास्तव
Updated On : 4 Dec 2025 5:55 PM IST

Kerala High Court: हाल ही में केरल हाई कोर्ट ने अश्लील कैसेट की दुकान चलाने के आरोपी की याचिका पर सुनवाई की. कोर्ट ने कहा, अश्लील कंटेंट शेयर से जुड़े मामलों में जब भी किसी वीडियो को सबूत के रूप में पेश किया जाए, तो ट्रायल जज को स्वयं उस वीडियो को देखकर यह सुनिश्चित करना होगा कि उसमें वास्तव में अश्लील कंटेंट है या नहीं.

हाई कोर्ट के जस्टिस काउसर एदप्पगथ फैसला सुनाते हुए आरोपी की सजा को रद्द कर दी. जांच में पता चला कि ट्रायल कोर्ट ने बिना वीडियो देखे ही आरोपी को आईपीसी की धारा 292 (अश्लील सामग्री की बिक्री और वितरण) के तहत दोषी ठहरा दिया. इसके बाद व्यक्ति ने हाई कोर्ट में फैसले को चुनौती दी थी.

पहले खुद वीडियो की जांच करें- कोर्ट

सुनवाई के दौरान कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जब तक जज खुद वीडियो देखकर यह कंफर्म नहीं करते कि उसमें अश्लील और अश्लीलता को बढ़ावा देने वाले सीन मौजूद हैं, तब तक इसे वैध सबूत नहीं माना जा सकता. इसलिए आरोपी की सजा को रद्द किया जाता है.

क्या है मामला?

कोट्टायम में हरिकुमार नाम के व्यक्ति वीडियो कैसेट की दुकान चलाता था. पुलिस ने उसकी दुकान से दस वीडियो कैसेट जब्त किए थे और ट्रायल कोर्ट ने उसे दो साल जेल और 2,000 रुपये जुर्माने की सजा सुनाई थी. बाद में कोर्ट ने सजा को घटाकर एक साल कर दिया. फिर उसने हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया.

हरिकुमार ने अपनी याचिका में कहा कि मजिस्ट्रेट ने कभी भी उन कैसेटों के कंटेंट को नहीं देखा, बल्कि गवाहों और पुलिस अधिकारियों की रिपोर्ट पर ही भरोसा कर लिया. हाईकोर्ट ने माना कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के तहत वीडियो कैसेट पहले सबूत माने जाते हैं और अदालत को स्वयं उनकी जांच करनी चाहिए थी.

गवाहों को लेकर कोर्ट की टिप्पणी

जज ने कहा कि गवाहों या पुलिस अधिकारियों के बयान केवल मदद के लिए हो सकते हैं, लेकिन वे अदालत में पेश किए गए वे बिना जांच के प्राथमिक सबूत नहीं बन सकते. क्योंकि न तो ट्रायल कोर्ट और न ही अपीलीय अदालत ने वीडियो देखे थे, इसलिए हरिकुमार की सजा माफी की जाती है. ऐसे मामले कानून व्यवस्था पर भी सवाल उठाते हैं कि बिना जांच-पड़ताल के किसी को भी सजा सुना देना ये कौन सा न्याय है.

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