भगवान विष्णु - अजब दुनिया तेरी, गजब तेरे भगत! श्रीराम हुए भाजपाई, ममता के जगन्नाथ
जब भगवान के अवतार भी पार्टी लाइन में बंटने लगे - एक ओर जय श्रीराम, दूसरी ओर जय जगन्नाथ। राजनीति ने अब आस्था को भी अपने झंडे में लपेट लिया है;
हिंदू-मुस्लिम की लड़ाई देखी होगी, ब्राह्मण-शूद्र की बहस सुनी होगी, यहां तक कि शैव और वैष्णवों की ठनक भी देखी होगी, लेकिन अब मामला उस स्तर तक पहुंच चुका है जहां.. भगवान विष्णु के दो अवतार - राम और जगन्नाथ - को लेकर भी भक्त भिड़ रहे हैं
धर्म और राजनीति का गठजोड़ अब किसी विमर्श का विषय नहीं रहा, बल्कि रोज़मर्रा की हकीकत बन चुका है. ताज़ा मामला पश्चिम बंगाल से सामने आया है, जहां एक वायरल वीडियो में दो राजनीतिक गुट - एक भाजपा समर्थक और दूसरा तृणमूल कांग्रेस समर्थक - आपस में ‘भगवान’ को लेकर भिड़ते दिखे.
एक ओर 'जय श्रीराम' के नारे लगाए जा रहे थे, दूसरी ओर 'जय जगन्नाथ' की हुंकार सुनाई दे रही थी. दोनों के हाथों में झंडे थे - BJP का भगवा झंडा (जिस पर बांग्ला में भाजपा लिखा हुआ साफ दिखता है) और दूसरी ओर TMC का झंडा.
पहली नजर में मामला मामूली लग सकता है - एक और राजनीतिक प्रदर्शन. लेकिन असल बात इससे कहीं ज्यादा गंभीर और विचलित करने वाली है.
दोनों पक्ष अपने-अपने ‘भगवान’ को राजनीतिक ब्रांड बनाकर खड़े हैं. एक तरफ भगवान राम, दूसरी तरफ भगवान जगन्नाथ. दोनों ही विष्णु के अवतार, और दोनों सनातन आस्था के स्तंभ - लेकिन अब पार्टी लाइन के आधार पर विभाजित.
अब सवाल उठता है - क्या भगवान भी चुनावी रणनीति का हिस्सा बन चुके हैं? क्या अब देवी-देवताओं की जयकार भी पार्टी लाइन से तय होगी?
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि यह घटना कोई संयोग नहीं, बल्कि एक खतरनाक चलन का हिस्सा है - जिसमें धर्म को वोटबैंक की भाषा में ढाला जा रहा है. धार्मिक आस्था अब व्यक्तिगत नहीं रही, वह सार्वजनिक प्रदर्शन और राजनीतिक वफादारी का पैमाना बन चुकी है.
इस घटना पर एक स्थानीय नागरिक ने कहा, "अब तो भगवान को भी सोचना पड़ेगा कि किस पार्टी की सभा में जाएं और किसके पोस्टर पर दिखें. कहीं राम का नाम लेने पर FIR न हो जाए, तो कहीं जगन्नाथ की तस्वीर भी 'राजनीतिक रंग' में रंगी मिले."
विशेषज्ञों के अनुसार, इस प्रकार की धार्मिक विभाजनकारी राजनीति समाज को तोड़ने का काम करती है. जब दो अवतारों के नाम पर लड़ाई हो, तो असल में लड़ाई धर्म की नहीं, सत्ता की होती है.
राजनीतिक विश्लेषक इसे "धर्म का निजीकरण नहीं, पार्टीकरण" मानते हैं. और यह खतरा महज़ नारेबाज़ी तक सीमित नहीं - यह समाज में गहरी वैचारिक दरारें पैदा करता है.
इस घटना पर अब तक न तो भाजपा की ओर से कोई बयान आया है, न ही तृणमूल कांग्रेस की ओर से. लेकिन सोशल मीडिया पर लोग खुलकर कह रहे हैं - "भगवान को झंडे में मत बांटो, आस्था को पार्टी कार्ड में मत बदलो."
कुल मिलाकर, यह घटना एक सवाल छोड़ जाती है:
क्या अब भगवान भी हमें पार्टी सिंबल के ज़रिए दर्शन देंगे?
या फिर हम ही इतने अंधे हो चुके हैं कि झंडा देखकर भगवान को पहचानते हैं.
और सवाल यही है -
क्या अब भगवान भी रैलियों में जाएंगे?
क्या राम और जगन्नाथ अब चुनाव प्रचार में हिस्सा लेंगे?
या फिर अगली बार रथयात्रा और रामनवमी में EVM भी बांटी जाएगी?