...तो तरस जाएंगे हिल्सा मछली खाने को, बंगाल की खाड़ी में 22,000 साल पुराना राज़ उजागर
बंगाल की खाड़ी, जो वैश्विक समुद्री क्षेत्र का केवल 1% है, दुनिया की 8% मछली पकड़ने की ज़रूरत पूरी करती है. खासकर हिल्सा मछली, जो भारत और बांग्लादेश में लाखों लोगों का प्रोटीन स्रोत है, गंभीर संकट में पड़ सकती है.;
मानसून अगर और ज़्यादा ताक़तवर और अनियमित हो गया, तो क्या होगा? सिर्फ़ ज़मीन पर बाढ़ या सूखा नहीं, बल्कि समंदर में भी भूखमरी जैसी स्थिति पैदा हो सकती है. नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक चौंकाने वाले अध्ययन के अनुसार, आने वाले वर्षों में तेज़ और अनियमित मानसून भारतीय महासागर की समुद्री ज़िंदगी को बड़ा झटका दे सकता है. नतीजा, मछलियां कम होंगी, खासकर बंगाल की खाड़ी में.
समंदर की गहराइयों में छिपे संकेत
अमेरिका, भारत और यूरोप के वैज्ञानिकों की इस संयुक्त स्टडी में समुद्र की गहराई में दबे प्लैंकटन (Plankton) के अवशेषों की जांच की गई, जो लगभग 22,000 साल पुराने हैं. इन छोटे-से जीवों की कैल्शियम की खोलों में जलवायु की कहानी दर्ज होती है. इन्हीं खोलों के ज़रिए वैज्ञानिकों ने पाया कि मानसून में आने वाले अतिरेक यानी - चाहे बहुत कम बारिश हो या बहुत ज़्यादा - दोनों ही स्थितियों ने समुद्री जीवन को तबाह किया.
तेज़ मानसून मतलब कम मछली?
स्टडी के लीड रिसर्चर कौस्तुभ थिरुमलाई (University of Arizona) ने टाइम्स ऑफ इंडिया से बात करते हुए बताया, “जैसे-जैसे मानसून और अधिक तीव्र और अनिश्चित होता जाएगा, समुद्री उत्पादकता गिरती जाएगी. और यह सिर्फ़ पर्यावरण का मुद्दा नहीं है, यह हमारी थाली में आने वाले प्रोटीन का भी सवाल है.”
बंगाल की खाड़ी, जो वैश्विक समुद्री क्षेत्र का केवल 1% है, दुनिया की 8% मछली पकड़ने की ज़रूरत पूरी करती है. खासकर हिल्सा मछली, जो भारत और बांग्लादेश में लाखों लोगों का प्रोटीन स्रोत है, गंभीर संकट में पड़ सकती है.
कैसे होता है यह प्रभाव?
जैसे ही मानसून बढ़ता है, गंगा जैसी नदियां मीठा पानी समुद्र में बहाती हैं. ये पानी सतह पर एक परत बना लेता है जो नीचे के पोषक तत्त्वों को ऊपर नहीं आने देता. इस वजह से वो "सनलिट ज़ोन" यानी वो हिस्सा जहां प्लैंकटन सूर्य की रोशनी में फोटोसिंथेसिस करते हैं, पोषक तत्वों से वंचित हो जाता है. और जब प्लैंकटन कम होते हैं, तो मछलियां भी भूखी रह जाती हैं.
गर्म होता समुद्र और गहराता संकट
वैज्ञानिकों का कहना है कि भारतीय महासागर पहले ही गर्म हो रहा है, और यही गर्मी इस "स्तरीकरण (Stratification)" को और बढ़ा रही है. भविष्य की जलवायु परियोजनाओं में तेज़ बारिश, गर्म सतही पानी और कमज़ोर हवाओं की भविष्यवाणी की गई है, ठीक वैसी ही स्थितियां जो अतीत में भी देखी गईं और जिनका नतीजा था समुद्री जीवन में गिरावट.
क्या यह पहली बार है?
केरल की सेंट्रल यूनिवर्सिटी के एक अन्य शोध ने भी हाल ही में अंडमान सागर और बंगाल की खाड़ी के तलछटों का विश्लेषण कर ऐसे ही निष्कर्ष निकाले हैं कि जैसे-जैसे मानसून अनियमित होता गया, वैसे-वैसे समुद्री पारिस्थितिकी बिखरती गई.
क्या होगा असर?
- हिल्सा और टूना जैसी मछलियों की संख्या घट सकती है
- तटीय राज्यों में मछुआरों की आजीविका पर असर
- समुद्री खाद्य श्रृंखला में असंतुलन
- भारत-बांग्लादेश जैसे घनी आबादी वाले क्षेत्रों में प्रोटीन संकट
नतीजा साफ है, अगर ग्लोबल वॉर्मिंग और तेज़ होते मानसून को गंभीरता से नहीं लिया गया, तो हमारी थाली से समुद्री मछलियां धीरे-धीरे गायब हो सकती हैं. और ये चेतावनी हमें लाखों साल पुराने समुद्री जीवों ने दी है.