जिस पर चल रहा केस, उसे ही बना दिया सरकारी लॉ ऑफिसर, जानें विकास बराला की क्राइम हिस्‍ट्री

सोचिए जो खुद अपराध कर चुका हो और जिस पर मुकदमा चल रहा हो उसे ही सरकार लॉ ऑफिसर चुन लें, को कमाल की बात है? सुभाष बराला के बेटे विकास बराला को सरकारी पद मिल गया है, जबकि दूसरी ओर अभी तक पीड़िता को न्याय नहीं मिला है.;

( Image Source:  AI Perplexity )
Edited By :  हेमा पंत
Updated On : 23 July 2025 12:21 PM IST

18 जुलाई 2025 की एक अधिसूचना में विकास बराला का नाम फिर से सुर्खियों में आया. विकास बराला, हरियाणा भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष सुभाष बराला के बेटे हैं. दरअसल हरियाणा सरकार ने उन्हें एडवोकेट जनरल (एजी) ऑफिस में 'लॉ ऑफिसर' नियुक्त किया है.

वह उन 100 से अधिक लॉ अधिकारियों में शामिल हैं, जिनकी नियुक्ति राज्य सरकार ने हाल ही में मंज़ूर की है, लेकिन आपको बता दें कि विकास बराला पर मुकदमा चल रहा है और वह जेल की हवा भी खा चुके हैं. चलिए जानते हैं अफसर की क्राइम हिस्ट्री.

आईएएस अधिकारी की बेटी का किया पीछा 

चंडीगढ़ में विकास बराला और उसके दोस्त ने अपनी गाड़ी से पूर्व वरिष्ठ आईएएस अधिकारी वी.एस. कुंडू की बेटी वर्णिका कुंडू का पीछा किया था. इतना ही नही, जबरन रास्ता रोकने और गाड़ी में घुसने की भी कोशिश की थी. वर्णिका ने इसके खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज करवाई. शुरुआत में मामला "स्टॉकिंग" का माना गया और आईपीसी की धारा 354D लगाई गई, लेकिन जब राष्ट्रीय मीडिया में मामला गरमाया, तब जाकर अपहरण की कोशिश के आरोप भी जोड़े गए.

5 महीने जेल में बिताए

इस मामले में 13 अक्टूबर 2017 को चंडीगढ़ की अदालत ने दोनों आरोपियों के खिलाफ औपचारिक आरोप तय किए. विकास बराला को गिरफ्तार किया गया और 5 महीने जेल की सजा काटी. इस दौरान उन्होंने लॉ का एग्जाम क्लियर किया. इसे उनकी अपॉइंटमेंट  के पक्ष में पेश किया जा रहा है.

योग्यता या राजनीतिक संरक्षण?

क्या कोई ऐसा व्यक्ति, जो अभी भी एक महिला के पीछा करने और अपहरण की कोशिश के मामले में अभियुक्त है. राज्य सरकार के लिए विधि अधिकारी नियुक्त हो सकता है? क्या यह राजनीतिक प्रभाव और न्यायिक प्रक्रिया के टकराव का उदाहरण नहीं है? एक ओर पीड़िता 8 साल से न्याय का इंतज़ार कर रही है, दूसरी ओर आरोपी को सरकारी पद मिल रहा है.  क्या यह व्यवस्था का अपमान नहीं?

क्या यही है न्याय?

विकास बराला की नियुक्ति एक सरकारी अधिसूचना मात्र नहीं है. यह भारत की न्याय प्रणाली, राजनीति और सामाजिक विवेक पर एक प्रश्नचिह्न है और इस सवाल का जवाब सिर्फ अदालत नहीं, समाज भी देगा. जब आरोपी तरक्की पा रहा हो और पीड़िता अब भी न्याय का इंतज़ार कर रही हो, तब हमें खुद से पूछना होगा: क्या हम वाकई एक न्यायप्रिय समाज हैं?

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